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६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ तन्त्रवार्तिक ( पृ० २०९-१०) में कुमारिलने वाक्यपदीयके 'तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते" (वाक्यप० ११७) अंश को उद्धृतकर उसका खंडन किया है। मीमांसाश्लोकवार्तिक ( वाक्याधिकरण श्लोक ५१ से) में वाक्यपदीय ( २।१-२) में आए हुए दशविध वाक्यलक्षणोंका समालोचन किया है। भर्तृहरिके स्फोटवादकी भी आलोचना कुमारिलने ( मी० श्लो० स्फोटवाद बड़ी प्रखरतासे को है। डॉ० के० बी० पाठकने यह निर्धारित किया है कि-कुमारिल ईसवी सनकी ८वीं शताब्दीके पूर्वभागमें हुए हैं। डॉ० पाठकके द्वारा अन्विष्ट प्रमाणोंसे इतना तो स्पष्ट है कि कुमारिल भर्तृहरि ( सन् ६५० ) के बाद हुए हैं। अतः कम से कम उनका कार्यकाल सन् ६५० के बाद तो होगा; पर वे इतने बाद तो कभी नहीं हो सकते । मेरे 'धर्मकीर्ति और कुमारिल' के विवेचनसे यह स्पष्ट हो जायगा कि-कुमारिल भतृहरिके बाद होकर भी धर्मकीर्तिके कुछ पूर्व हुए हैं; क्यों कि धर्मकीर्तिने कुमारिलके विचारोंका खंडन किया है। डॉ० पाठक कुमारिल और धर्मकीर्तिके पारस्परिक पौर्वापर्यके विषयमें अभ्रान्त नहीं थे। यही कारण है कि-वे कुमारिलका समय ई० ८वीं का पूर्वभाग मानते थे। धर्मकीर्तिका समय आगे सन् ६२० से ६९० तक निश्चित किया जायगा। अतः कुमारिलका समय सन् ६०० से ६८० तक मानना ही समुचित होगा।
भर्तृहरि और धर्मकोति-कुमारिलको तरह धर्मकीर्तिने भी भर्तृहरिके स्फोटवाद तथा उनके अन्य विचारोंका खंडन अपने प्रमाण वार्तिक तथा उसकी स्वोपज्ञवृत्ति में किया है | यथा
१-धर्मकीर्ति स्फोटवादका खण्डन प्रमाणवार्तिक ( ३।२५१ से ) में करते हैं। २-भर्तृहरि की-"नादेनाहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह । आवृत्तिपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवभासते ॥"
-वाक्यप० ११८५ इस कारिकामें वर्णित वाक्यार्थबोधप्रकारका खण्डन धर्मकोति प्रमाणवार्तिक स्वोपज्ञवृत्ति ( ३।२५३ ) में इस प्रकार उल्लेख करके करते है
"समस्तवर्णसंस्कारवत्या अन्त्यया बुद्धया वाक्यावधारणमित्यपि मिथ्या।" अतः धर्मकीर्तिका समय भर्तृहरिके अनन्तर माननेमें कोई सन्देह नहीं है ।
कुमारिल और धर्मकीति-डॉ० विद्याभूषण आदिको विश्वास था कि कुमारिलने धर्मकीतिको आलोचना की है। मद्रास यनि०से प्रकाशित बहतीके द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें प्रो० रामनाथ शास्त्रीने उक्त मन्तव्यकी पुष्टिके लिये मीमांसाश्लोकवार्तिकके ४ स्थल ( मी० श्लो० १० ६९ श्लो० ७६, पृ० ८३ श्लो० १३१, पृ० १४४ श्लो० ३६, पृ० २५० श्लो० १३१) भी खोज निकाले हैं। मालम होता है कि-इन स्थलोंकी पार्थसारथिमिश्र विरचित न्यायरत्नाकर व्याख्यामें जो उत्थान वाक्य दिए हैं, उन्होंके आधारसे ही प्रो० रामनाथजीने उन श्लोकोंको धर्मकीर्तिके मतखण्डनपरक समझ लिया है। यहाँ पार्थसारथिमिश्रकी तरह, जो कुमारिलसे ४-५ सौ वर्ष बाद हुए हैं, शास्त्रीजी भी भ्रममें पड़ गए हैं। क्योंकि उन इलोकोंमें कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जिसके बलपर उन श्लोकोंका अर्थ साक्षात धर्मकीर्तिके मतखण्डनपरक रूपमें लगाया जा सके । ४-५ सौ वर्ष बाद हुए टीकाकारको, जिसकी दष्टि ऐतिहासिककी अपेक्षा तात्त्विक अधिक है ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है। इसी तरह डॉ० पाठक'का यह लिखना भी अभ्रान्त नहीं है कि-"मीमांसा श्लोकवार्तिकके शुन्यवाद प्रकरण में कुमारिलने बौद्धमतके 'बद्धयात्मा ग्राह्य ग्राहक रूपसे भिन्न दिखाई देता है इस विचारका १. यह उद्धरण न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावनासे लिया है।
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