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३ / कृतियों की समीक्षाएँ : ४७ सदाचार- दुराचारको क्या परिभाषा बनेगी ? क्योंकि इस नियतिवादमें तो 'ऐसा क्यों हुआ' का एक ही उत्तर है कि 'ऐसा होना ही था' ।
इस अध्यायमें कर्मवाद, यदृच्छावाद, पुरुषवाद, ईश्वरवाद, भूतवाद, अव्याकृतवाद, उत्पादादित्रयात्मकवाद, जड़वाद और परिणामवादकी मान्यताओंकी भी समीक्षा की गई है ।
पदार्थ स्वरूपका निर्णय करनेके लिए ग्रन्थ में छोटेसे पाँचवें अध्यायके रूपमें अलग से अध्याय रखा गया है जिसमें पदार्थके गुण और धर्मका स्वरूपास्तित्वका और सामान्य विशेषका विवेचन है ।
'षट् द्रव्य विवेचन' नामके छठें अधिकारमें छह द्रव्योंकी सामान्य विवेचनाके बाद जीव द्रव्यके संसारी और मुक्त आदि भेद, पुद्गल द्रव्यके स्कन्ध आदि भेद, बन्धकी प्रक्रिया, धर्म-अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंके कार्योंका विवेचन किया गया है तथा इनके स्वरूपमें बौद्ध, वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनों की भ्रान्तियों को भी उजागर किया गया है। एक द्रव्यके दूसरे द्रव्यपर पड़नेवाले प्रभावकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि
'इसीलिए जगत् के महापुरुषोंने प्रत्येक भव्यको एक ही बात कही है कि "अच्छा वातावरण बनाओ; मंगलमय भावोंको चारों ओर बिखेरो ।' किसी प्रभावशाली योगीके अचिन्त्य प्रेम और अहिंसाकी विश्वमंत्री रूप संजीवन धारासे आसपासकी वनस्पतियोंका असमय में पुष्पित हो जाना और जातिविरोधी साँप - नेवला आदि प्राणियोंका अपना साधारण वैर भूलकर उनके अमृतपूत वातावरणमें परस्पर मैत्रीके क्षणोंका अनुभव करना कोई बहुत अनहोनी बात नहीं है, यह तो प्रभावको अचिन्त्य शक्तिका साधारण स्फुरण है ।' (पृष्ठ १५२ । )
सातवें अधिकारका शीर्षक है 'तत्त्व निरूपण' । इसका प्रयोजन बताते हुए प्रारम्भमें ही कहा गया है। कि यद्यपि विश्वषद्रव्यमय है परन्तु मुक्तिके लिए जिस तत्त्वज्ञान की आवश्यकता होती है वे तत्त्व सात हैं । विश्व व्यवस्थाका ज्ञान न होनेपर भी तत्त्वज्ञानसे मोक्षकी साधना की जा सकती है । परन्तु तत्त्वज्ञान न होनेपर विश्व व्यवस्थाका समग्र ज्ञान भी कार्यकारी नहीं होता ।
सात तत्त्वोंकी विवेचना करते हुए लेखकने लिखा है कि इन सात तत्त्वोंका मूल है आत्मा । स्वभाव अमूर्ति-अखण्ड अविनाशी आत्माको जैन दार्शनिकों द्वारा अनादिबद्ध माननेके कारणोंकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि व्यवहारसे जीव मूर्तिक भी है। कर्म संयोगके कारण अनादिसे जीव मूर्तिक और अशुद्ध माना गया है परन्तु एक बार शुद्ध अमूर्तिक हो जाने के बाद फिर वह अशुद्ध या मूर्तिक नहीं होता ।
आत्मदृष्टिको ही सम्यकदृष्टि निरूपित करते हुए कहा है कि बन्ध, मोक्ष और उसके कारणभूत तत्त्वों के सिवाय उस आत्माका ज्ञान भी आवश्यक है जिसे शुद्ध होना है पर जो वर्तमान में अशुद्ध हो रहा है । आमाकी यह अशुद्ध दशा स्वरूप प्रच्युतिरूप है । यह दशा स्वस्वरूपको भूलकर पर पदार्थों में ममकार अहंकार करनेके कारण हुई है अतः इस अशुद्ध दशाकी समाप्ति स्वस्वरूपके ज्ञानसे ही हो सकती है ।
संसारके कारण आस्रव और बन्ध तथा मोक्षके कारण संवर और निर्जरा तत्त्वोंकी समुचित व्याख्या करके मोक्ष तत्त्वकी चर्चा करते हुए लेखकने कहा है कि अन्य दार्शनिकोंने मोक्षको निर्वाण नामसे व्यवहार करके आत्म निर्वाण को दीप निर्वाण आदिकी तरह व्याख्यायित कर दिया पर जैन दार्शनिकोंने सात तत्त्वों में उसका नाम हो मोक्ष तत्त्व रखा है जिसका अर्थ है छूटना ।
अध्यायके अन्त में मोक्ष मार्गकी चर्चा करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान और सम्यचरित्रकी एकता ही मोक्ष का मार्ग है । ऐसा सम्यग्ज्ञान जो सम्यक् चारित्रका पोषक या वर्धक नहीं
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