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________________ १६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ उस उदार दृष्टिका निर्वाह नहीं देखा जाता जो मूल ग्रन्थकार की है क्योंकि टीकामें चतुर्थ अधिकारमें जैनमतके प्रस्तुतीकरण के साथ अन्य मतोंकी समीक्षा भी की गई है जब कि हरिभद्रकी कारिकाओं में इस प्रकारका कोई भी संकेत नहीं मिलता । इस टीकामें जैनदर्शनकी प्रतिस्थापनाका प्रयत्न अतिविस्तारसे हुआ । टीकाका आधे से अधिक भाग तो मात्र जैनदर्शनसे सम्बन्धित हैं, अतः टीकाके विवेचनमें वह सन्तुलन नहीं है जो हरिभद्रके मूल ग्रन्थ में है । हरिभद्रका यह मूलग्रन्थ और उसकी टीका यद्यपि अनेक भंडारोंमें हस्तप्रतियोंके रूपमें उपलब्ध थे किन्तु जहाँ तक हमारी जानकारी है गुजराती टीकाके साथ हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयका सर्वप्रथम प्रकाशन एसियाटिक सोसायटी, कलकत्तासे १९०५ में हुआ था । इसी प्रकार मणिभद्रकी लघुवृत्तिके साथ इसका प्रकाशन चौखम्भा संस्कृत मीरीज, वाराणसीके द्वारा १९२० में हुआ । इस प्रकार षड्दर्शनसमुच्चय मूलका टीकाके साथ प्रकाशन उसके पूर्व भी हुआ था किन्तु वैज्ञानिक रीतिसे सम्पादन और हिन्दी अनुवाद अपेक्षित था । इस ग्रंथका वैज्ञानिक रीतिसे सम्पादन और हिन्दी अनुवादका यह महत्त्वपूर्ण कार्य पंडित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के द्वारा किया गया । सम्भवतः उनके पूर्व और उनके पश्चात् भी इस ग्रन्थका ऐसा अन्य कोई प्रामाणिक संस्करण आज तक नहीं प्रकाशित हो पाया है । अनेक प्रतियोंसे पाठोंका मिलान करके और जिस ढंगसे मूलग्रन्थको सम्पादित किया गया था वह निश्चित ही एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य रहा होगा जिसमें पंडितजी को अनेक कष्ट उठाने पड़े होंगे । दुर्भाग्य से इस ग्रन्थ पर उनकी अपनी भूमिका न हो पानेके कारण हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि मूल प्रतियों को प्राप्त करके अथवा एक प्रकाशित संस्करणके आधार पर इस ग्रन्थको सम्पादित करने में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा । इस ग्रन्थके संदर्भ में अपने पांडुलिपिसे जो सूचना मिलती है इससे मात्र इतना ज्ञात होता है कि उन्होंने षड्दर्शनसमुच्चय मूल और गुणरत्न टीकाका अनुवाद २५ /६/४० को ४ बजे पूर्ण किया था किन्तु उनके संशोधन उसपर टिप्पण लिखनेका कार्य वे अपनी मृत्यु जून १९५९ के पूर्व तक करते रहे। इससे यह स्पष्ट पता चलता है कि उन्होंने इस ग्रन्थको अन्तिम रूप देने में पर्याप्त परिश्रम किया है । खेद तो यह भी है कि वे अपने जीवनकालमें न तो इसकी भूमिका लिख पाए न इसे प्रकाशित रूप में ही देख पाये । भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित होकर यह ग्रन्थ जिस रूपमें हमारे सामने आया और उनके श्रम एवं उनकी प्रतिभाका अनुमान किया जा सकता है । यह तो एक सुनिश्चित तथ्य है कि संस्कृतकी अधिकांश टीकाएँ मूलग्रन्थसे भी अधिक दुष्कर हो जाती हैं और उन्हें पढ़कर समझ पाना मूलग्रन्थकी अपेक्षा भी कठिन होता है । अनेक संस्कृत ग्रन्थोंकी टीकाओं विशेषरूप से जैनदर्शनसे सम्बन्धित ग्रन्थोंकी संस्कृत टीकाओं के अध्ययनसे मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि टीकाओंका अनुवाद करना अत्यन्त दुरूह कार्य है । सामान्यतया यह देखा जाता है विद्वज्जन अनुवादमें ग्रन्थके मूलशब्दोंको यथावत् रखकर अपना काम चला लेते हैं किन्तु इससे विषयकी स्पष्टतामें कठिनाई उत्पन्न होती हैं । 'मक्षिका स्थाने मक्षिका' रखकर अनुवाद तो किया जा सकता है किन्तु वह पाठकों के लिए वोधगम्य और सरल नहीं होता । पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्यकी अनुवाद शैलीका यह वैशिष्टय कि इनका अनुवाद मूलग्रन्थ और उसकी टीकाकी अपेक्षा अत्यन्त सरल और सुबोध है । दर्शनके ग्रन्थको सरल और सुबोध ढंगसे प्रस्तुत करना केवल उसी व्यक्ति के लिए संभव होता है जो उन ग्रन्थोंको आत्मसात् कर प्रस्तुतीकरणकी क्षमता रखता हो। जिसे विषय ज्ञान न हो वह चाहे कैसा ही भाषाविद हो सफल अनुवादक नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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