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आचार्य अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चयटीकाका वैद्ध्यपूर्ण संपादन : एक समीक्षा
• डॉ० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य, बीना
पूर्ववृत्त लगभग ४९ वर्ष पूर्व ईस्वी सन् १९४६ में 'आचार्य अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय टीका' शीर्षकसे एक शोधपूर्ण आलेख 'अनेकान्त' मासिक पत्रमें हमने लिखा था। उस समय यह टीका प्रकाशित नहीं हुई थी । उसके कोई १२ वर्ष बाद स्वर्गीय डॉ० पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य के सुयोग्य सम्पादकत्वमें भारतीय ज्ञानपीठसे ई० १९५८ में प्रकाशित हुई । यह विशाल टीका दो भागों में प्रकट हुई है। इसके प्रथम भागके साथ सम्पादककी विद्वत्तापूर्ण अति महत्त्वकी १६४ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना भी सम्बद्ध । आज यही ग्रन्थ हमारी समीक्षाका विषय है ।
मूलग्रन्थ 'सिद्धि-विनिश्चय' है, जिसके रचयिता आचार्य अकलंकदेव हैं । अन्य न्यायविनिश्चयादि तर्क-प्रन्थोंकी तरह इस पर भी उनकी स्वोपज्ञवृत्ति है और मूल तथा स्वोपज्ञवृत्ति दोनों ही अत्यन्त दुरुह एवं दुरवगम्य हैं । अतएव दोनों पर आचार्य अनन्तवीर्यने विशाल टीका लिखी है, जिसका नाम 'सिद्धिविनिश्चयटीका' है ।
उपलब्ध जैन साहित्यमें अनन्तवीर्यं नामके अनेक आचार्य हुए हैं। पर उनमें दो अनन्तवीर्य अधिक विश्रुत हैं । एक वे हैं जिन्होंने आ० माणिक्यनन्दिके 'परीक्षामुख' पर 'परीक्षामुखपञ्जिका' नामक वृत्ति लिखी है' और जिसे 'प्रमेयरत्नमाला' नामसे अभिहित किया जाता है । ये अनन्तवीर्य परीक्षामुखालंकार प्रभाचन्द्र से उत्तरकालीन हैं और लघु अनन्तवीर्यं कहे जाते हैं । इन्होंने स्वयं प्रमेयरत्नमालाके आरम्भ में प्रभाचन्द्र और उनके प्रमेयक मलमार्त्तण्ड ( परीक्षामुखालंकार ) का उल्लेख किया है। इनका समय १२वीं शती है ।
दूसरे अनन्तवीर्य वे हैं, जिन्होंने प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयटीका लिखी है और जिन्हें बृहदनन्तवीर्य कहा जाता । ये अकलंकदेवके प्रौढ़ और सम्भवतः आद्य व्याख्याकार हैं । प्रभाचन्द्र और वादिराज इन दोनों व्याख्याकारों द्वारा ये बड़े सम्मान एवं आदर के साथ अपने पथप्रदर्शक के रूपमें स्मरण किये गये हैं । प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि अकलंकदेवकी संक्षिप्त, गहन और दुर्गम पद्धतिको अनन्तवीर्यके व्याख्यानों परसे सैकड़ों बार सम्यक् अभ्यास करके तथा विवेचन करके बड़े पुण्योदयसे प्राप्त ( ज्ञात ) कर पाया हूँ । इससे यह प्रकट है कि जहाँ ये अनन्तवीर्यं प्रभाचन्द्र ( ११वीं शती) से पूर्ववर्ती हैं वहाँ वे उनकी असाधारण विद्वत्ताको भी मानते हैं और अकलंकदेवकी दुरुह कथन शैलीका मर्मोद्घाटक एवं स्पष्ट करनेवाला प्रतिभाशाली सारस्वत भी बतलाते हैं ।
स्याद्वाद विद्यापति वादिराज ( ई० १०२५ ) कहते हैं कि अकलंकदेवके गूढ़ पदोंका अर्थ अनन्तवोर्यके वचन-प्रदीप द्वारा ही मैं अवलोकित कर सका" । यही वादिराज एक दूसरे स्थानपर अनन्तवीर्यको
१. प्रमेयरत्न पृ० २ । ३. वही, पृ० २, श्लोक ३ ।
२. वही, प्रशस्ति, पृ० २१० ।
४. न्यायकुमुद० द्वि० भा० ५-३०, पृ० ६०५ ।
५.
न्यायवि० विव०, भाग २, १-३ ।
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