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३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : ३
तथा कुछ समय बाद उसको छोड़ देते हैं। कोई मुनि शरीरमें विकार उत्पन्न हो जानेसे लज्जाके कारण वस्त्रोंको ग्रहण कर लेते हैं । इस प्रकारका व्याख्यान भगवतो आराधनामें अपवादरूपसे बतलाया है।
इस प्रकरणमें विद्वान् सम्पादकने लिखा है कि भगवती आराधनाकी अपराजित सरिकृत विजयोदया टोकामें यह अपवाद मार्ग स्वीकार किया गया है । क्योंकि अपराजितसूरि यापनीय संघके आचार्य थे और यापनीय आगमोंको प्रमाण मानते थे । परन्तु श्रुतसागरसूरि तो कट्टर दिगम्बर थे । वे कैसे इस चक्कर में आ गये।
इसी प्रकार सत्र संख्या ५/४१, ८/२, ८/११, ९/१ इत्यादि सूत्रोंकी वृत्तियों में भी कुल गलतियाँ विद्यमान हैं। फिर भी तत्त्वार्थवृत्ति अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण और बहुत ही उपयोगी बृहदाकार रचना है । इसका परिमाण ९००० श्लोक प्रमाण है । सुपर रायल साइजके ३२८ पृष्ठोंमें इसका मुद्रण हुआ है । संस्कृत टीकाके बाद १८३ पृष्ठोंमें इसका हिन्दी सार भी मुद्रित है जिसे श्री उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्यने लिखा है । इसमें तत्त्वार्थसूत्र पर श्रुतसागरसूरिका जो विवेचन है वह प्रायः पूरा संगृहीत है और संस्कृत न जानने वालोंके लिए यह हिन्दी सार बहुत ही उपयोगी है। ग्रन्थके अन्तमें ६५ पृष्ठोंमें ६ उपयोगी परिशिष्ट दिये गये हैं। इस प्रकार सुपर रायल साइजमें मुद्रित तत्त्वार्थवृत्तिकी कुल पृष्ठ संख्या ६५० है ।
अब यहाँ “भरतैरावतयोवृद्धि हासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ।" ३/२७ । इस सूत्रकी व्याख्यामें उल्लिखित कुछ विशेष बातों पर विचार करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है।
श्रुतसागरसूरिने अवसर्पिणी कालके वर्णनमें कुछ विशेष बातें बतलाई है जो इस प्रकार हैं
अवसर्पिण्यास्तृतीयकाले पल्यस्याष्टम भागे स्थिते सति षोडशकुलकरा उत्पद्यन्ते । तत्र षोडशकुलकरेषु मध्ये पञ्चदशकुलकराणामष्टम एव भागे विपत्तिर्भवति । षोडशस्तु कुलकरः उत्पद्यते अष्टम एव भागे विनाशस्तु तस्य चतुर्थेकाले भवति । पञ्चदश कुलकरस्तोथंकरः । तत्पुत्रः षोडशकुलकरश्चक्रवर्ती भवति । तौ द्वावपि चतुरशीतिलक्षपूर्वजीवितौ। चतुर्थकाले त्रयोविंशतिस्तीर्थकरा उत्पद्यन्ते निर्वान्ति च।
एकादश चक्रवर्तिनः नव बलभद्राः नव वासुदेवाः नव प्रतिवासुदेवा उत्पद्यन्ते । एकादशरुद्रा नव नारदाश्च उत्पद्यन्ते । अर्थात् अवसर्पिणीके तृतीयकालमें आठवां भाग शेष रहने पर १६ कुलकर उत्पन्न होते हैं । १६ कुलकरोंमें से १५ की आठवें भागमें ही मृत्यु हो जाती है । सोलहवां कुलकर आठवें भागमें ही उत्पन्न होता है किन्तु उसकी मृत्यु चतुर्थकालमें होती है। पन्द्रहवां कुलकर तीर्थंकर होता है और सोलहवां कुलकर उसका पुत्र चक्रवर्ती होता है । उन दोनोंकी आयु चौरासी लाख पूर्वकी होती है । चौथे कालमें तेईस तीर्थंकर उत्पन्न होते है और निर्वाणको प्राप्त होते हैं । चतुर्थकालमें ११ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव उत्पन्न होते हैं । ११ रुद्र और ९ नारद भी इस कालमें उत्पन्न होते हैं।
अब उत्सपिर्णी कालकी जिन विशेषताओंको श्रुतसागरसूरिने बतलाया है उनको देखिए
उत्सर्पिण्याः द्वितीयस्य कालस्यान्ते वर्षसहस्रावशेषे स्थिते सति चतुर्दशकुलकरा उत्पद्यन्ते । तद्वर्षसहस्रमध्ये त्रयोदशानां विनाशो भवति । चतुर्दश कुलकर उत्पद्यते । तद्वर्षसहस्रमध्ये विपद्यते तु तृतीयकालमध्ये । तस्य चतुर्दशस्य कुलकरस्य पुत्रस्तीर्थंकरो भवति । तस्य तीर्थंकरस्य पुत्रश्चक्रवर्ती भवति । तवयस्याप्युत्पत्तिस्तृतीयकाले भवति । अस्मिन्नेवकाले शलाकाः पुरुषा उत्पद्यन्ते ।
अर्थात उत्सर्पिणीके द्वितीय कालके अन्तमें एक हजार शेष रहने पर चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं। तेरह कुलकर द्वितीय कालमें ही उत्पन्न होते हैं और मरते भी द्वितीय कालमें ही है । लेकिन चौदहवां कूलकर उत्पन्न तो द्वितीय कालमें ही होता है किन्तु मरता तृतीय कालमें है। चौदहवें कुलकर का पुत्र तीर्थकर
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