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तत्त्वार्थवृत्ति : एक अध्ययन
• प्रो० उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी
आचार्य गृद्धपिच्छ अपरनाम उमास्वामी द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र जैनपरम्पराका आद्य सूत्र ग्रन्थ है जो दश अध्यायोंमें विभक्त है। इस पर सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि अनेक संस्कृत टीकाओंका निर्माण हुआ है। उनमें श्री श्रुतसागरसूरि विरचित तत्त्वार्थवृत्ति भी तत्त्वार्थसूत्रकी एक विशाल और उपयोगी टीका है। यह टीका पहले अप्रकाशित थी। सम्पादनकला विशेषज्ञ स्व० डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यने इसका विद्वत्तापूर्ण सम्पादन किया और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सन् १९४९ में ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमालाके अन्तर्गत इसका प्रकाशन हुआ । ग्रन्थ नाम
इस टीकाका नाम तत्त्वार्थवृत्ति है । श्रुतसागरसूरिने ग्रन्थके प्रारम्भमें "वक्ष्ये तत्त्वार्थवृत्ति निजविभवतयाऽहं श्रतोदन्बदाख्यः ।" ऐसा लिखकर स्पष्ट कर दिया है कि इस ग्रन्थका नाम तत्त्वार्थवत्ति है। इसके प्रथम अध्यायके अन्तमें आगत पुष्पिका वाक्यमें-"तत्त्वार्थटीकायां प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।" ऐसा लिखा है। द्वितीय अध्यायके अन्तमें जो पुष्पिका वाक्य है उसमें लिखा है-"तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्थवृत्ती द्वितीयः पादः समाप्तः ।" ऐसा लिखा है। इसी प्रकार तृतीय आदि अध्यायोंके अन्तमें भी "तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्थवृत्तौ'' ऐसा उल्लेख मिलता है उपरिलिखित पुष्पिका वाक्योंसे ऐसा प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थवृत्तिके दो नाम और हैं-'तत्त्वार्थ टीका' और तात्पर्य" । किन्तु श्रुतसागरसूरिको इसका नाम तत्त्वार्थवृत्ति ही अभीष्ट है। इसी कारण उन्होंने ग्रन्थके प्रारंभमें तथा अन्तमें इसका तत्त्वार्थवृत्ति नाम ही लिखा है । ग्रन्थके अन्तका उल्लेख इस प्रकार है-''एषा तत्त्वार्थवृत्तिः यर्विचार्यते।" तत्त्वार्थसूत्रकी टीका होनेके कारण इसका तत्त्वार्थटीका यह एक साधारण नाम है । तत्त्वार्थसूत्रके तात्पर्यको स्पष्ट करनेके कारण इसको तात्पर्य संज्ञक तत्त्वार्थवृत्ति भी कह सकते हैं । फिर भी इसका वास्तविक नाम तत्त्वार्थवृत्ति ही है।
यहाँ एक बात विचारणीय है कि श्रुतसागरसूरिने प्रथम अध्यायके अन्तमें 'प्रथमोऽध्यायः समाप्तः' ऐसा लिखा है। किन्तु द्वितीय आदि नौ अध्यायोंके अन्त में 'द्वितीयः पादः समाप्तः', 'तृतीयः पादः समाप्तः' इस प्रकार लिखा है। यहाँ यह विचारणीय है कि लेखकने अध्यायके स्थानमें पाद शब्दका प्रयोग क्यों किया है। क्योंकि सब अध्यायों के अन्त में एकसा प्रयोग होना चाहिए। फिर जब दश अध्याय प्रारंभसे ही प्रचलित हैं तब अध्यायको पाद लिखना अटपटासा लगता है । न्यायसूत्र, वैशेषिक सूत्र आदि अन्य दर्शनोंके सूत्र ग्रन्थोंमें एक अध्यायमें कई पाद होते है। अतः वहाँ 'प्रथमेऽध्याये प्रथमः पादः,' 'द्वितीयः पादः' इत्यादि प्रकारसे उल्लेख किया गया है जो ठीक है । इससे यही सिद्ध होता है कि अध्याय और पाद अलग-अलग है । इसलिए अध्यायको पाद लिखना ठीक प्रतीत नहीं होता है। फिर भी इतना निश्चित है कि तत्त्वार्थवृत्तिके लेखकको पाद शब्दसे अध्याय ही इष्ट है। ग्रन्थकारका व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तत्त्वार्थवृत्तिके कर्ताका नाम श्रुतसागरसूरि है। ये दिगम्बर जैन मुनि होनेके साथ ही बहुश्रुत विद्वान् थे । यथार्थमें वे श्रुतके सागर थे । वे तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार, साहित्यशास्त्र, धर्मशास्त्र आदिके ज्ञाता होनेके साथ ही सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री आदि जैनदर्शनके तथा न्याय-वैशेषिक आदि इतर दार्शनिक ग्रन्थोंके प्रकाण्ड पण्डित थे। उनका
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