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१४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
एवं १९४१ में हुआ। प्रथम भागमें उसके सम्पादक पं. महेन्द्रकुमारजीने उपलब्ध मल प्रतियां तथा अन्य साधन सामग्रियोंका परिचय देकर ग्रन्थ-विषयके महत्त्वपर प्रकाश डाला है। श्री० ५० कैलाशचन्द्रजी द्वारा लिखित १२६ पृष्ठ प्रमाण प्रस्तावनामें अकलंक-साहित्यका परिचय विविध जैनेतर न्यायशास्त्रके विद्वानोंके साथ उनकी तुलना, जैन-न्यायकी विशेषताएँ, अकलंकके पूर्वकालीन, समकालीन एवं परवर्ती कुछ विद्वानोंका परिचय एवं प्रभाचन्द्रके कालनिर्धारणके विविध साक्ष्य, प्रभाचन्द्रकी कृतियों-प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र , तत्त्वार्थवृति, शाकटायनन्यास, शब्दाम्भोजभास्कर (जैनेन्द्रव्याकरमहान्यास ), प्रवचनसारसरोजभास्कर ( प्रवचनसारटीका ), गद्यकथाकोष, महापुराण-टिप्पण आदिका संक्षिप्त परिचय, प्रभाचन्द्रके कृतित्व एवं व्यक्तित्वपर विस्तृत प्रकाश तथा उनके बहुश्रुतत्व आदि विषयोंपर गम्भीर विवेचना की है। प्रस्तुत प्रथम खण्डमें दो परिच्छेद प्रस्तुत किए गये हैं, जिसमें कुल ४०२ पृष्ठ है।
द्वितीय खण्डमें अवशिष्ट मलपाठ ५२७ पृष्ठोंमें उसके अतिरिक्त प्रस्तावना आदि ९२ पृष्ठोंमें प्रस्तुत है। अपनी विद्वत्तापर्ण प्रस्तावना पं० महेन्द्रकुमारजी द्वारा लिखित है, जिसमें प्रभाचन्द्रका विविध साक्ष्यों के आधार पर काल-निर्णय, वैदिक विचारधारा यथा-वेद, उपनिषद्, स्मृति एवं पुराणोंसे प्रभाचन्द्रका परिचय, व्यास, पतंजलि, भर्तृहरि, व्यासभाष्यकार, ईश्वरकृष्ण, माठराचार्य, प्रशस्तपाद व्योमशिव, श्रीधर, वात्स्यायन, उद्योतकर, भट्टजयन्त, वाचस्पति मिश्र, शबरऋषि, कुमारिल, मंडनमिश्र, शालिकनाथ, शंकराचार्य, सुरेश्वर, भामह, बाणभट्ट, माघ बौद्धाचार्यों में -अश्वघोष, नागार्जुन, बसुबन्धु, दिग्नाग, धर्मकीति, प्रज्ञाकरगुप्त, कर्णकगोमि, शान्तरक्षित, कमलशील, अर्चट, धर्मोत्तर, ज्ञानश्री, जयसिंहराशिभट्ट तथा जैनाचार्यों में-कुन्दकुन्द, वट्ट केर, समन्तभद्र, पूज्यपाद, धनंजय, अतन्तवीर्य, विद्यानन्द, अनन्तकोति, शाकटायन, अभयनन्दि, वादिराजसूरि, नेमिचन्द्र, देवसेन, श्रुतकीति, सिद्धसेन, धर्मदासगणि, हरिभद्र, सिद्धर्षि, देवभद्र, मल्लिषेण, गुणरत्न, यशोविजय आदिका परिचय देते हुए प्रभाचन्द्रके साहित्यके साथ उनके पारस्परिक प्रभाव अथवा आदान-प्रदानकी चर्चा की गई है।
पण्डितजीने विविध साक्ष्योंके आधारपर प्रभाचन्द्रका समय सन् ९८० से १०६५ ई० के मध्य निर्धारित किया है। प्रभाचन्द्र के बहुआयामी व्यक्तित्वकी चर्चा करते हुए उन्हें आयुर्वेदका ज्ञाता भी बतलाया है।
न्यायकूमदचन्द्रके सम्पादनसे पण्डित महेन्द्रकुमारजीका एक शोधार्थीक रूपमें जीवन प्रारम्भ हआ। इस कति ने उनके प्रच्छन्न पाण्डित्यको मुखर किया तथा उस दृष्टिसे यह ग्रन्थ उनके लिए एक शुभ शकुनका सचक सिद्ध हआ । पारिवारिक जीवन में उन्हें उसके पुरस्कार स्वरूप एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने शभस्मृतिके प्रतीक स्वरूप "कुमुदचन्द्र" रखा। किन्तु दुर्भाग्यसे वह उनका साथ अधिक समय
मका और बीच में ही चल बसा। उस समय पण्डितजी कितने व्यथित हए होंगे, इसका आभास जनके इस कथनमें मिल सकता है-'मैंने न्यायकुमुदचन्द्रके सम्पादन-कालमें जात अपने ज्येष्ठ पुत्रका नाम स्मृति-स्वरूप 'कुमुदचन्द्र" रखा था । कालकी गति विचित्र है। अब तो यह सम्पादित ग्रन्थ ही उसका पुण्य-स्मारक हो गया है । मैं तो इसे अपने साहित्य-यज्ञकी आहुति ही मानता हूँ।"
पं० महेन्द्रकुमारजी के शास्त्रीय पद्धतिसे लिखित प्राचीन जैन न्यायके मल ग्रन्थोंकी सम्पादन-कलाके विषयमें पं. नाथरामजी "प्रेमी" ने (माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित "न्यायकुमुदचन्द्र" (द्वितीय भाग) के अपने प्रकाशकीय निवेदनमें ) कहा है कि-'पूर्वाधके समान इस उत्तरार्धका भी सर्वांगसन्दर पद्धतिसे सम्पादन और संशोधन किया गया है पण्डितजीका यह परिश्रम और अध्यवसाय दूसरे विद्वानोंके लिए ग्रन्थ-सम्पादनके कार्य में मार्गदर्शकका काम देगा।"
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