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८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ
सुलभ कितने ही महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथ उस समय सदाके लिए लुप्त समझे जाते थे । हमारे पंडितोंने अपनी खो-सी गयी निधिको इस प्रकार प्राप्त करनेमें बहुत कुछ सफलता पायी । महेन्द्रजी उन्हीं में से अन्यतम थे । उन्होंने प्राचीन ब्राह्मण दर्शन ग्रंथोंका गंभीर अध्ययन किया, बौद्ध दर्शनका अवगाहन किया और जैनदर्शनपर अधिकार प्राप्त किया । हिन्दू विश्वविद्यालय में बौद्ध दर्शन के अध्यापक हुए । इसीसे उनकी इस योग्यताका पता लगेगा। हाल ही में वह उसी विश्वविद्यालयमें "जैन धर्म-दर्शन और प्राकृत विभाग" के अध्यक्ष नियुक्त हुए थे, पर कार्यभार सँभालने से पहले ही महाप्रस्थान कर गये ।
आचार्य महेन्द्र अथक परिश्रमी थे, तभी तो उन्होंने इतनी थोड़ी आयुमें दर्जनों संस्कृतके प्रौढ़ दर्शन ग्रंथोंकी विशाल भूमिका लिखी तथा उनका अनुवाद या वैज्ञानिक दृष्टिसे सम्पादन किया । वे ग्रन्थ यह हैं(१) 'न्यायकुमुदचन्द्र' (२) 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' (३) 'अकलंकग्रंथत्रय' (४) 'न्यायविनिश्चय' (५) 'तत्त्वार्थवार्तिक' (६) 'सिद्धिविनिश्चय' (७) 'तत्त्वार्थवृत्ति' (८) 'जयधवल' ( प्रथमपुस्तक ) (९) 'प्रमाणमीमांसा' (१०) 'जैनतर्क भाषा, जैनदर्शन' । (११) साढ़े छः सौ पृष्ठोंका 'जैनदर्शन' उनके दार्शनिक ज्ञानकी परिपक्वताका परिचायक रहेगा । उनके निम्न ग्रंथ प्रकाशनार्थ तैयार हैं - (१) 'षड्दर्शनसमुच्चय' (२) 'सत्यशासनपरीक्षा' (३) 'विश्वतत्त्वप्रकाश' ( ४ ) ' प्रमाणप्रमेयकलिका' (५) 'युक्त्यनुशासन' (६) 'आत्मानुशासन' (७) 'विविधतीर्थंकल्प' (८) 'प्रभावकचरित्र' ।
वह अपनी पूरी क्षमताका उपयोग नहीं कर सके वह अपने वर्तमान से संतुष्ट नहीं थे, इसीलिए अपनी साधना में सतत तत्पर थे, और इस आयु में समर्थ पंडित बनने के बाद भी तिब्बती भाषा पर अधिकार करने में लगे हुए थे । वह जानते थे, दो लाख श्लोकों से अधिक संस्कृत दर्शन ग्रंथ तिब्बती अनुवादोंमें ही सुरक्षित हैं, उनके बिना भारतीय दर्शनका अध्ययन पूरा नहीं समझा जा सकता । उन्होंने मुझे तिब्बत जाते देख कहा था मेरी आवश्यकता हो, तो अवश्य मुझे बुलाइयेगा । एक जैन वातावरणमें पले-पोसे विद्वान् के लिए तिब्बत अनुकूल स्थान नहीं हो सकता । पर जिसने विद्याव्रत धारण किया है, वह किसी भी बाधासे हिचक नहीं सकता । "मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतति सिद्धये" की तरह आजके हजारों संस्कृतके साधकों में महेन्द्रजी एक सिद्धिप्राप्त थे । उतने ही से सन्तुष्ट न रह अपनी साधनाको बढ़ा रहे थे । भावी पीढ़ी से मैं निराश नहीं हूँ । महेन्द्रका स्थान उन्हें भरना होगा, पर वह कितना कठिन है, इसे समझना कठिन नहीं है । हमारे देश में संस्कृतकी रक्षा और प्रचारके लिए बहुत चर्चा सुनी जाती है । उसके लिए भारतसरकारने आयोग भी नियुक्त किया था। उसने अपने सुझाव भी उपस्थित कर दिये हैं, पर जान पड़ता है, उनका ध्यान अधिकतर संस्कृतके प्रचार पर ही है । संस्कृतके प्रचार पर मत्था पच्ची करने की वस्तुतः आवश्यकता नहीं है । हमारी सभी भाषाएँ संस्कृतके अवलंब से विकसित और समृद्ध हुई हैं । उनपर अच्छा अधिकार पानेके लिए संस्कृतकी बड़ी आवश्यकता है, इसे सभी समझते हैं, और उसीके अनुसार असमिया, बँगला, उड़िया, मराठी, हिन्दी, गुजराती, नेपाली ही नहीं तेलुगू, कन्नड, मलयालमके क्षेत्र में भी संस्कृतका प्रचार बढ़ रहा है । वस्तुतः समस्या संस्कृतके प्रचार की नहीं है, बल्कि यह है कि संस्कृतके गंभीर पांडित्यकी रक्षा कैसे की जाय ? उन्नीसवीं सदी के अन्त तक नहीं बल्कि बीसवीं सदी के मध्य तक बढ़े आते पांडित्य कीजिसके प्रतिनिधि आचार्य महेन्द्र थे--रक्षा कैसे की जाये । आजका शिक्षित पुरुष अध्ययन जल्दी समाप्त कर अधिक वेतनवाली नौकरी प्राप्तकर निश्चिन्त सुखका जीवन बिताना चाहता है । वह ४८ या ५० वर्ष तक विद्यार्थी रहकर तपस्वी और अकिंचनका जीवन बिताना नहीं चाहता है। यदि हम चाहते हैं कि हमारे मेघावी तरुण संस्कृतके गंभीर विद्वान् बनने के लिए प्रयास करें, तो उन्हें निश्चिन्त सुखपूर्वक जीवन पानेकी सुविधा करनी होगी !
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