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________________ ७६ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ पद्मपुराण, हरिवंशपुराण तथा महापुराणोंके पश्चात् अलग अलग तीर्थकरोके जीवनचरित बहुतायत से पाये जाते हैं । १०वीं शतीसे १८वीं शती तक ऐसी रचनाएँ होती रहीं । १२वीं और १२वीं शती ऐसे साहित्यमें काफी सम्पन्न रही हैं, वैसे १५वीं से १७वीं शती भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । बहुलताकी दृष्टिसे अधिक से अधिक कृतियाँ शान्तिनाथ पर उपलब्ध हैं। द्वितीय श्रेणिमें नेमि और पार्श्वजिन संबंधी कृतियोंको रखा जा सकता है। तृतीय स्थानमें आदि जिन ऋषभ, आठवें चन्द्रप्रभ और अन्तिम जिन महावीर के चरितोंकी संख्या उल्लेखनीय हैं । प्राकृत भाषा में आदि तीर्थंकर ऋषभ पर प्रथम रचना अभयदेवके शिष्य वर्धमानसूरि (११६०वि० सं०) की प्राप्त है । ११००० श्लोक प्रमाण यह ग्रन्थ पांच परिच्छेदों में विभक्त है। भुवनतुंगका ऋषभदेव चरित ३२३ गाथाओंमें निबद्ध है । अमरचन्द्र (१३वीं शती) का संस्कृत पश्चानन्दकाव्य १९ सगवाला आदिनाथ के जीवनचरित्र संबंधी है। विनयचन्द्रका आदिनाथचरित्र १४७४ वि० सं० की रचना है। अन्य रचनाएँ भ० सकलकीर्त्ति (१५वीं शती), चन्द्रकीर्त्ति (१७वीं शती), शान्तिदास, धर्मकीर्ति आदिकी हैं। हस्तिमलने गद्यात्मक आदिनाथ पुराण लिखा। ललितकीर्त्तिका आदिपुराण जिनसेनाचार्य के आदिपुराण पर टीका मात्र है। नेमिकुमार के पुत्र वाग्भटने काव्यमीमांसा में अपने ऋषभदेवचरितका उल्लेख किया है । अपभ्रंशमें रइधू (१६वीं शताब्दी वि० सं० ) का आदिपुराण उल्लेखनीय है । उसका अपरनाम मेघेश्वर चरित है । द्वितीय तीर्थकर संबंधी अजितनाथपुराण बुधराघव के शिष्य अरुणमणि (१७१६ वि० सं०) की संस्कृत रचना है। अपभ्रंश में सं० १५०५की विजय सिंहकी रचना उपलब्ध है । तृतीय तीर्थंकर पर संभवनाथचरित्र की रचना मेरुतुंगसूरिने सं० १४१३ में की थी। एक तेजपालकी इसी नामकी अपभ्रंश रचना है। चतुर्थ तीर्थंकर अभिनन्दन के चरितों का उल्लेख मात्र मिलता है। पाँचवें जिन पर सुमतिनाथ चरितके रचनाकार विजयसिंह के शिष्य सोमप्रभ ( १२वीं शताब्दी ) थे । यह ग्रन्थ प्राकृतमें ९६२१ ग्रंथाग्र प्रमाण है । संस्कृत में भी इस विषयक रचनाका उल्लेख आता है । छठें तीर्थंकरका पद्मप्रभचरित प्राकृत में देवसूरिने १२५४ वि० सं० में रचा। संस्कृत में शुभचन्द्रका पद्मनाभपुराण १७वीं शतीका है। विद्याभूषण और सोमदत्त के भी पद्मनाभपुराण प्राप्त हैं। देवप्रभसूरि के शिष्य सिद्धसेनने भी पद्मप्रभचरित्र रचा था । सातवें तीर्थकर संबंधी सुपार्श्वनाथचरित प्राकृत में हर्षपुरीय गच्छके लक्ष्मणगणि (११८८ वि० सं०) ने रचा । यह रचना उत्कृष्ट कोटिकी करीब ९००० गाथा प्रमाण है । देवसूरिकी भी प्राकृत रचना मिलती है । आठवें जिन चन्द्रप्रभ पर प्राकृत में वीरसूरि (११३८ वि० स० ), येशोदेव (सं० १९७८), चंद्रसूरि के शिष्य हरिभद्र (१२२३) तथा जिनवर्धनसूरिकी कृतियाँ हैं । अपभ्रंश रचना यशः कीर्तिकी (१५वीं १६वीं शती) ११ संघियों में प्राप्त है । देवेन्द्र (सं० १२६४ ) की रचना संस्कृत व प्राकृतमय है । संस्कृत में असग (११वीं शती), वीरनन्दि ( ११वीं शती), गुणरत्नके शिष्य सर्वानंद (सं० १३०२), शुभचन्द्र (१६वीं १७वीं शती) तथा पंडिताचार्य और दामोदर कवि (सं० १७२७ ) की रचनाएँ उपलब्ध हैं । अन्धसेन के चन्द्रप्रभचरितका भी उल्लेख आता है । १७वीं शताब्दीकी रचना पं० शिवाभिरामकी भी मिलती है जो सात समें विभक्त है । नौवें तीर्थंकर पुष्पदन्तके जीवनपर कोई रचना नहीं मिलती । नन्दिताढ्यकृत गाथाळक्षण के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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