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विदेशों में प्राकृत और जैनविद्याओं का अध्ययन
डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन
भारतके बाहर जर्मनी, जापान, रूस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इग्लण्ड, फास, बेल्जियम, फिनलैण्ड प्रादि देशोमे प्राक़त और जैन विद्याप्रोके विविध रूपोपर पर्याप्त शोधपर्ण अध्ययन किया जा रहा है। अनेक देशोमे विभिन्न विश्वविद्यालयोमे इससे सम्बन्धित विभाग हैं जो इस अध्ययनको नयी दिशा दे रहे हैं । इस लेखमे हम इस कार्यमे भाग लेनेवाले विशिष्ट विद्वानो और उनके कार्योंका सक्षिप्त विवरण देनेका प्रयास कर रहे है।
जर्मनीमे जैन विद्याप्रोका अध्ययन
भारतीय विद्याके अध्ययनकी दृष्टि से जर्मनी सबसे प्रमुख राष्ट्र है। यहां प्राय. प्रत्येक विश्वविद्यालय मे भारतीय विद्याका अध्ययन और शोध होता है । उन्नीसवी तथा बीसवी सदीके कुछ प्रमुख जैन विद्यावेत्ताप्रोके विषयमे अन्यत्र लिखा गया है । उसके पूरकके रूपमे ही यह वर्णन लेना चाहिये । फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनीके गोटिंजन विश्वविद्यालयके भारतीय एन बौद्ध विद्या विभागमे दो प्राचार्य कार्यरत हैं-डा० गुस्टवरांठ और डा० हेन्श वेशर्ट । ये दोनो ही प्राकृत तथा जैनधर्मके विशिष्ट विद्वान हैं । आपके सहयोगसे 'भारतीय विद्यानोका परिचय तथा जैनधर्म तथा जैन साहित्यके क्षेत्रमें जर्मनीका योगदान' नामक पुस्तकें (अग्नेजीमे) लिखी गई है।
जर्मनीके वॉन विश्वविद्यालयके प्राच्य विद्या विभागमे प्राचार्य डा० क्लास फिशर भारतीय कला के अन्तर्गत जैन मूर्तिकलाका भी अध्यापन करते रहे हैं। जन कलाके सम्बन्धमे उनके अनेक निबन्ध वायस प्रॉव अहिंमा तथा जैन जर्नलमे प्रकाशित हुए है।
बलिनमे डा. चन्द्रभाल त्रिपाठी दस वर्षोसे, जर्मन पुस्तकालयोमे विद्यमान जैन पाण्डुलिपियोके सम्बन्धमे शोध कार्य कर रहे है। 1975 मे उनका 'स्ट्रासवर्गकी जैन पाण्डुलिपियोकी सूची' नामक ग्रन्थ बलिन विश्वविद्यालयसे प्रकाशित हुआ था। 1977 मे उन्होने जर्मन भाषामे "केटेलोगीजी रु ग्स ट्रेडीशन डेर जैनाज" नामसे एक निबन्ध भी लिखा है। इसमे उन्होने जर्मनीके विभिन्न पुस्तकालयोमे प्राप्त जैन पाण्डुलिपियोके सम्बन्धमे वैज्ञानिक पद्धतिसे विस्तृत जानकारी दी है। इनके दो और महत्त्वपूर्ण निबन्ध हैं (1) 'रत्नमञ्जूषा एण्ड छन्दोविचित्ती' तथा (2) जैन कन्कोर्डेन्स एण्ड भाष्य कन्कोर्डन्स । प्रथम निबन्धमे रत्नमन्जूषा (प्रपरनाम मजूपिका) को सस्कृत
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