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________________ भी प्राणी को क्षति पहुँचाना, उस पर प्रतिबन्ध लगाना. उसकी स्वतन्त्रता मे बाधा पहचाना, हिंसा है। जब हम किसी के स्वतन्त्र चिन्तन को बाधित करते हैं, उसके बोलने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और गमनागमन पर रोक लगाते है तो प्रकारान्तर से क्रमश उमके मन, वचन और काया रूप प्राण की हिंसा करते हैं। इसी प्रकार किसी के देखने, सुनने, सूधने, चखने, छुने प्रादि पर प्रतिबन्ध लगाना भी विभिन्न प्राणो की हिंसा है। यह कहने की अावश्यकता नहीं कि स्वतन्त्रता का यह सूक्ष्म उदात्त चितन ही हमारे मविधान के स्वतन्त्रता सम्बन्धी मौनिक अधिकारी का उत्स रहा है। विचार जगत मे स्वतन्त्रता का बड़ा महत्व है। प्रात्म निर्णय और मताधिकार इसी के परिणाम हैं। कई साम्यवादी देशो मे सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता होते हुए भी इच्छा स्वातन्त्र्य का यह अधिकार नही है। पर जैन दशन में और हमारे सविधान मे भी विचार स्वातन्त्र्य को सर्वोपरि महत्व दिया गया है। महावीर ने स्पष्ट कहा कि प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है, इसलिये उसकी स्वतन्त्र विचार-चेतना भी है। प्रत जैसा तुम सोचते हो एक मात्र यही सत्य नहीं है। दूसरे जो सोचते हैं उसमे भी सत्याश निहित है। अत पूण सत्य का माक्षात्कार करने के लिए इतर लोगो के सोने हुए, अनुभव किये हुए सत्याशो को भी महत्व दो। उन्हे समझो, परखो और आलोक मे अपने सत्य का परीक्षण करो। इससे न केवल तुम्हे उम सत्य का साक्षात्कार होगा वरन् अपनी भूलो के प्रति सुधार करने का तुम्हे अवसर भी मिलेगा। प्रकारान्तर से महावीर का यह चिन्तन जनतान्त्रिक शासन-व्यवस्था में स्वस्थ विरोधी पक्ष की अावश्यकता और महत्ता प्रतिपादित करता है तथा इस बात की प्रेरणा देता है कि किसी भी तथ्य को भली प्रकार समझने के लिए अपने को विरोध पक्ष की स्थिति मे रख कर उस पर चिन्तन करो। तब जो सत्य निखरेगा वह निर्मल, निविकार और निष्पक्ष होगा। महावीर का यह वैचारिक प्रौदार्य और सापेक्षचिन्तन स्वतन्त्रता का कवच है। यह दृष्टिकोण अनेकान्त सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित है। 2 समानता स्वतन्त्रता की अनुभूति वातावरण और अवसर की समानता पर निभर है। यदि समाज मे जातिगत वैषम्य और आर्थिक असमानता है तो स्वतन्त्रता के अधिकार का भी कोई विशेष उपयोग नहीं। इसलिये महावीर ने स्वतन्त्रता पर जितना बल दिया उतना ही बल समानता पर दिया। उन्हे जो विरक्ति हुई वह केवल जीवन वी नश्वरता या सासारिक असारता को देखकर नही वरन् मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोपण देखकर वे तिलमिला उठे और उस शोपण को मिटाने के लिए, जीवन के हर स्तर पर समता स्थापित करने के लिए उन्होने क्रान्ति की, तीर्थ प्रवर्तन किया। जन्म के स्थान पर कर्म को प्रतिष्ठित कर गरीबो, दलितो और असहायो को उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करने की कला सिखाई। अपने साधना काल मे कठोर अभिग्रह धारण कर दासी बनी, हथकडी और बेडियो मे जकडी, तीन दिन से भूखी, मुण्डितकेश राजकुमारी चन्दना से पाहार ग्रहण कर उच्च पवित्र राजकुल की महारानियो के मुकाबले समाज मे निकृष्ट समझी जाने वाली नारी शक्ति की प्राध्यात्मिक गरिमा और महिमा प्रतिष्ठापित की। जातिवाद और वर्णवाद के खिलाफ छेडी गयी यह सामाजिक क्रान्ति भारतीय जनतन्त्र की सामाजिक समानता का मुख्य आधार बनी है। यह तथ्य पश्चिम के सभ्य कहलाने वाले तथाकथित जनतान्त्रिक देशो की रगभेद नीति के विरुद्ध एक चुनौती है। 52
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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