________________
पजाब मे फगवाडा मे मेघमुनि ने स० 1818 मे 'मेघविनोद" नामक रोगनिदान-चिकित्सा पर तथा महाराजा रणजीतसिंह के काल मे यति गगाराम ने अमृतसर में स० 1878 मे रोगो के निदान पर "गगयति निदान" नामक उपयोगी ग्रन्थ लिखे थे।
इन ग्रन्थो के अन्तरग परीक्षण से ज्ञात होता है कि इनमे जैन धर्म के तत्वो-अहिंसा, समभाव का पालन करते हुए मद्य, मास, मधु का निषेध पाया जाता है। रसचिकित्सा एव रसयोगो का बाहुल्येन उपयोग मिलता है। निदान की दृष्टि से नाडीपरीक्षा, मूत्रपरीक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया है। कल्याणकारक मे तो मास-भक्षण-निषेध पर युक्तियुक्त विवेचना की गई है । कुछ ग्रन्थ "आम्नायग्रन्थ" (गुटको) के रूप में भी मिलते है ।
जैन यति-मुनियो के उपासरे तथा श्रावको द्वारा निर्मित धर्मार्थ चिकित्सालयो के निर्माण की परम्परा ने वैद्यकविद्या को अमूल्य योगदान दिया है। निश्चित ही, उनकी यह देन सास्कृतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण कही जा सकती है ।
प्रोफेसर, मदनमोहन मालवीय राजकीय मायुर्वेद महाविद्यालय उदयपुर (राजस्थान)
ज्यो मति-हीन विवेक विना नर,
साजि मतग जो इंधन ढोवै । कचन - भाजन धूरि भरै शठ,
मूढ सुधारस सो पग धौवै ॥
वै-हित काग उडावन कारन,
डारि उदधि 'मनि' मूरख रोवै ॥ स्यो नर-देह दुर्लभ्य बनारसि, पाय अजान अकारथ खोवै ॥
माठक समयसार
50