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जैन दर्शन और 'करुणा'
श्री कन्हैयालाल लोढा
अचेतन-सचेतन मे कोई भिन्नता है, तो वह मुख्यत दो ही बातो मे है-(1) सवेदन करना और (2) विचार करना, जानना । सवेदन करने को दर्शन व जानने को ज्ञान कहा जाता है। वह ज्ञान और दर्शन गुण चेतन के मुख्य लक्षण हैं। अचेतन मे ये गण नही होते हैं। ज्ञान भी दर्शन के बाद होता है। इसलिये ज्ञान से भी अधिक महत्व दर्शन का है। जिस प्राणी का जितना दर्शन गुण विकसित है उस प्राणी की चेतना उतनी ही अधिक विकसित है। वस्तुन सवेदन ही चेतना का प्रतीक है। शरीर मे भी जिस स्थल पर सवेदन शक्ति खो जाती है उसे हम मूच्छित या अचेतन कहते हैं। प्राणी का जितना-जितना विकास होता जाता है सवेदन शक्ति उतनी ही बढती जाती है । इस सवेदन शक्ति का अधिक विकास होने पर प्राणी अपने से भिन्न व्यक्तियो मे होने वाली सवेदन या वेदना का स्वय सवेदन करने लगता है जिससे दूसरो के होने वाले दुख से वह करुणित होने लगता है। उनकी वेदना को वह स्वय सवेदन के रूप में अनुभव करता है और उनकी वेदना या दुख को मिटाने का प्रयास करता है। इसे ही दया कहा जाता है। पर-पीडा का सवेदन "करुणा" है। पर-पीडा को दूर करने के लिए अपना योगदान देना दया है। दया करुणा का क्रियात्मक रूप है। पर-पीडा से करुणित व्यक्ति अपने दुख से ऊपर उठ जाता है और अपनी सामर्थ्य का उपयोग दूसरो की सेवा में करता है। दया, दान, सेवाभाव समानार्थक व पर्यायवाची हैं, साथ ही करुणा जितने ऊँचे स्तर की होगी, जितनी गहरी होगी, उतनी ही विभु होगी तथा चेतना उतनी ही ऊँचे स्तर की होगी, गहरी होगी व विभु होगी।
जो साधक परपीडा से संवेदनशील होते हैं, वे सहज ही अपनी सामर्थ्य व शक्ति का उपयोग प्राणी मात्र के दुख को दूर करने मे करते हैं। उसका यह योगदान जैनागम मे अनन्त दान कहा है। ऐसे व्यक्ति मे अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त माधुर्य, अनन्त सौन्दर्य और अनन्त सामर्थ्य की भी अभिव्यक्ति होती है । ऐश्वर्य तो इस प्रकार का है कि उसे लेशमात्र भी कमी नहीं रहती है, अपने लिए ससार और शरीर की अपेक्षा ही नही रहती है। कमी अनुभव होने को जैनागम मे लाभान्तराम कहा है । कमी का अनुभव न होना ही लाभ है। लेशमात्र भी कमी अनुभव न होना ही अनन्त लाभ है, अनन्त ऐश्वर्य है । करुणाई व्यक्ति को ससार के सारे प्राणी भले लगते हैं, बडे सुन्दर लगते हैं, बड़े प्यारे
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