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जैन दर्शन में प्रतिपादित आधारभूत जीवन-मूल्य
प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन
आज हम एक स्वतन्त्र और विकासशील देश के नागरिक हैं और आर्थिक क्रान्ति के द्वारा समाज की नव-सरचना के महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं। सामाजिक विकास की दिशा में स्वतन्त्रता और समानता इन दो आधारभूत जीवन-मूल्यो के विषय मे जैनदर्शन का अभिमत जानना, बताना इस परिप्रेक्ष्य मे सर्वथा प्रासगिक है।
जनदर्शन न केवल मानव को, वरन् प्रत्येक जीव को और प्रत्येक जीव को ही नही प्रत्येक द्रव्य को स्वतन्त्र मानता है। जीव की स्वतन्त्रता इस दर्शन की मौलिक चिन्तना है। उसके स्वरूप को बिगाडना या सुधारना किसी अन्य के लिए सम्भव ही नही है। स्वभाव से वह स्वतन्त्र है और विभाव से वह अपने पापको परतन्त्र समझता है। "अप्पा मित्त अमित्त च" आत्मा ही अपना मित्र है, वही उसका शत्रु है। अपने ही विभावो के कषायित रूपो को-राग, द्वेष और मोह को जीतकर वह 'जिन' बनता है और अपने सद, चित् और प्रानन्दमय स्वतन्त्ररूप मे प्रतिष्ठित, हो जाता है। यह तो जीव का भ्रम है कि वह कर्मबद्ध है और परतन्त्र है। इस भ्रम को दूर करने के लिए उसे आस्था के साथ ज्ञान और आचरण की सम्यक्त्वपूर्ण साधना में लीन होना पडता है।
जनदर्शन की दूसरी मौलिक चिन्तना है, समता । जीवो की समानता और स्वतन्त्रता दोनो एक दूसरे के पूरक है। इससे जीवो की पारस्परिक स्थिति स्पष्ट होती है। एक जीव दूसरे जीव के उपकार या अपकार मे निमित्त तो बन सकता है पर इससे उसकी समता किसी भी तरह खण्डित नहीं होती। कोई जीव छोटा या बडा नही, निकृष्ट या उत्कृष्ट नही। जैसे प्रत्येक जीव स्वतत्र है वैसे ही समान भी है। आध्यात्मिक धरातल पर सारे जीव समान है। सभी जीव अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख इस अनन्त चतुष्टय से सम्पन्न हैं। हमे जो असमानता भापित होती है वह तो उसके शारीरिक या, पोद्गलिक परिवेश के कारण है। भौतिक घरातल पर असमानता अनिवार्य है। तियंच, पशु, देव और मानव का भेद इसी घरातल पर है। भौतिकता के कारण ही काले और गोरे का भेद है। मोटे और दुबले का भेद है। स्त्री, पुरुप और नपुसक का भेद है। बौद्धिक उपलब्धियो मे भी इसी प्रकार व्यक्तिश अपेक्षाकृत भेद है। आज तक की कोई सामाजिक व्यवस्था केवल भौतिक आधार पर ऐसे भेदो को नही मिटा सकी। भौतिक दृष्टि का
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