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________________ कि जो हेतु छापेंके हैं वहीं इसके होसक्ते हैं, दर्शन करना अवश्यकताओमेसें है, विनयाविनयको उन्होंने उठाकर धरहीं दियाहै । भाइयो! ऐसे दीर्घ संसारियोंसे बचना चाहिये, इनको इसलोक तथा परलोकका भय नहीं है | नहीं मालूम जब कि ये आचार्योंके वचनोंको प्रमाण कहते हैं तो यह कैसे कहसक्ते हैं कि “केवली भगवानके खाश यह लफ्जहै कि जैसा जमाना देवो वैसा काम करो" क्या केवली भगवान उनसे स्वयं कहने आयेथे, बससिर्फ यह एक वह कानेके लिये केवलीकी ओटहै तिसपरमी उनके लेावोसे सबको विदितहै कि वेजमाने (काल) की परीक्षा करनी नहीं जानते । यद्यपि हमारी जैन जातिमें विद्याकी कमी है तथापि हमको पूर्ण विश्वासहै कि उनका ज्ञान इतना नहीं घटाहै कि ऐसे मृपा नंदियोंके बहकायेमें आजायं, बहुतसे तो ऐसे पंडित शेषहैं जो बड़े २ अन्यमती वादियोंका मुह फेर सक्तं हैं, विधवाओंका जो कछ दःख तथा रांड होना आदिक उन्होंने लिवाह सो सब ठीक है परन्तु अफसोस कि मंपादकजीने नीचेही दृष्टिकी ऊंचे नहीं की, उन्नतिको छोड अवनतिहीकी ओर झुकं, दुःख मेंटनेका उपाय न बताया परन्तु उलटा नकोंक दुःखोंके सन्मुग्न, करनेका उपदेश दिया, हमतो जब संपाद ककी परोपकारना, धर्मज्ञता, दूरदर्शिता और जातिहि तैपिता समझते जब स्त्रियोंका पुनर्विवाह नो दरही ग्ही पुरुपोंकोभी पुनर्विवाह न कराने की प्रेरणा करने और शिक्षा देतें, कि चूंकि मुनि धर्म तथा गुरु परंपगयकै लोप होनेसे हमारी जाति महान् हीनदशाको प्राप्त होगई है, और होती जाता है अतः उन भाइयोंको कि जिनकी विवाहित स्त्री मरजायं, एक अवसर मिलता है कि वे विरक्त हो गृहम्यारंभको त्याग मुनि वा ठुल्लकादि धर्मको धारण करें, और अपना तथा अन्यजी का कल्याणकर जिनमनका उद्यान करें, ऐसे उपदेशसे मुनि वा अर्जिका होनेपर किसी स्त्रीकोभी कोई दुःख न रहता किन्तु दोनों लोकमें परम कल्याण होता और यही समीचीन रीतिहै, जो कुछभी विधवा दुःग्य मानती हैं वह मब मानना उनका अज्ञान जनितहै, ज्ञानी चूंकि वस्तुका म्वरूप जानना, इससे उसको दुग्ख नहीं हुआकरता, ऐसे उपदेशसे जो यश और पुण्यका सं. चय संपादकीको होता व अकथनीयहै। ___ अब आशा है कि यदि सम्पादक का हय अह पक्षपात शून्य तथा निर्णयरूप जिनकी बुद्धि है और धर्मके उद्योतको चाहते है तो अवश्य इसको पढ़कर अपना भ्रम दूर करें गे और अपनी पत्रिकामें उस लेखको मिथ्या तथा भूल करार देकर मुनि और अर्जिका तथा श्रावक और श्राविका धर्मकी प्रवृत्तिका उपदेश करेंगे, जितना जोर ऐसे अनर्थ कार्यपरदिया उससे सहस्रों गुणा उसपर जोर देकर इसकी प्रवृत्तिकी ओर प्रेरणा करेंगे, और इससे न घबरावे कि हमारी बातमें फिर उसके लिखने में फर्क आता है क्योंकि जैनियोंकै प. क्षपात नही हुआ करता, सम्यक्तता उनका मुख्य प्रयोजन होता है, फिर देखें कि कितनी संपादकजीकी कीर्ति फैलती है और इसमें क्या बड़प्पन है, शिथलाचारका उपदेश तो कोई दे दे, दातो कोई दे किन्तु चिननाही मुशकिल है । अब यद्यपि मैं इसपर बहुत कुछ लिखना चाहताहूं और प्रत्येक शब्दका बहुत कुछ खंडन कर सक्ताहूं परन्तु लेखके बढ़ने के भयसे तथा ज्ञानवानोंके लिये इतनाही काफी समझनेसे इसको समाप्त करताहूं और भाइ.. योसे प्रार्थना करताहूं कि उनको अपने शास्त्रानुसार प्रवर्तना चाहिये और कदापि ऐसे दीघे संसारियोंके वहकायेमें नहीं आना चाहिये, इत्यलम् सर्व भारयोंकाहितैषी. जुगुल किशोर जैन सिरसावा (जि. सहारनपुर)
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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