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________________ (४) कि मुर्देके फूंकनेसे पाप होताहै और धर्म नहीं परन्तु व्यवहारमें उसको करना जरूरी है इसीप्रकार कन्यादानभी व्यवहार मान्य है । फेरोंके विषयमें सम्पादक पत्रिकाने वृयाही कोलाहल किया, क्योंकि सातवीं भाँवरसे संपादक जैनमित्रका ऐसा आशय ज्ञात होताहै कि उन्होंने विवाहसमयकी उस हालतके बोधनार्थ कि जिसके अनंतरही पतिका पूर्ण अधिकार स्त्रीपर होताजाहै, व्यवहार नयकर उपरोक्त शब्दका प्रयोग कियाहै जैसे किसी म्लेच्छ को म्लेच्छभाषाहीमें समझाइये तो समझै अन्यथा नहीं, ऐसे समझानके वास्ते बालगोपाल प्रसिद्ध शब्दका प्रयोग कियाहै, एडीटर पत्रिकाको पदार्थका स्वरूप निर्णय करने के लिये निश्चय व्यवहारका स्वरूप जरूर सीखना चाहिये. और कानूनमें सिवाय खास शौके कोई लाजमी नियम नहीं हैं जिससे वह जायदाद उस मनुप्यके मरनेपर जिसको दोगईथी देनेवाले. कीही विरासतमें आजाय, यदि वे ऐसा सर्वया मानेंगे तो वह यह नहीं कहसकेंगे कि मनुष्यके मरनेपर उसकी जायदादका मालिक उसका पुत्र होताहै जो कि उन्होंने अगली पंक्तियोंमें लिग्वाहै क्योंकि जिस पितादिकसे उसको मिली उसीको मिलनी चाहिये । और सुसरका संतान उत्पन्न करना इत्यादि जो शब्द लिखे हैं सो बिलकुल वे बिचारे और अकलको रुग्वसत करके लिखे हैं क्योंकि उनको प्रत्येक कुटुंबीके दर्जे और अधिकारका तमीज नहीं और न विवाह समयके वचनोंके आशयको समझाहै। अब पत्रिकाकी एक सग्वन भ्रांति और गलनीका संशोधन किया जाता है कि-जिसका आश्रय ले वह व्यभिचारको पोपती है और वह देवांगनादि संबंधी कथन है, इससे ज्ञात होता है संपादकने कभी कर्मभूमि, भोगभूमि, और स्वाँका म्वरूप नहीं समझा हैं इससे ऐसा समझे लिखमारा, सच तो यों है कि-पक्षपानकर जिसकी आखें बंद होजाती हैं. उ. सको कुछ नहीं सझता । अब समझना चाहिये कि शील नाम स्वभावकाहै, और निश्चय नयकर सकल विभावरूप परिमाणही कुशीलहै, परन्तु व्यवहारकर अविवेकजनित मैथुन कर्मकानाम कशीलहै, और याद रखना चाहिये कि प्राणियोंकी प्रवृत्ति अनेक प्रकारकी होतीहै, कहीं भवजनित, कहीं विवंकजानित, कहीं अविवेकजानित, और कहीं जाति स्वभाव कर नियमिन, इत्यादि, सो इनका सविस्तर कथन बहुतहै नथापि सामान्य तौर पर यहाँ यह कहना काफी है कि देवों वा नारकियोंकै स्वतः अवधिज्ञानका होना, विक्रियाका करना, इत्यादिक भवजनिन प्रवृत्ति है. देव लाग्य चाहते हैं कि हम तप संयम करें परन्तु नहीं करसक्ते यहही एक भवजनित प्रवृत्तिहै, इसीतरह मैथुन प्रकारभी देवोंके भव जनित हैं और उसके अनेक भेदहैं, कायस मैथुन कंवल प्रथम दोही स्वर्गों में हैं, तिसपरभी गर्भाधानादि प्रवृत्ति नहीं, उनके शरीरमें निगोट नहींः अतः अविवेकजनित न होने आदि अनेक कारणोंस देवांगना कुशीली नहीं होसक्ती हैं । बहार भोगभमियोंके युगपत् स्त्रीपुरुषका उपजना, युगपत्हीं छींक तथा जंभाइपूर्वक मरणका होना, शरीरका करवत उडजाना, और असि मसि कृशादि शकर्मरहित कल्पवृक्षजनित भोगनका भोगना, इत्यादि प्रवृत्ति जातिस्वभाव नियमित है, वेभी नपश्चग्णादि नहीं करसक्तं, इनकेभी देवनारकी कीनाई मोक्षके साधनका अभाव हैं, इसीप्रकार मैथुन प्रकारभी भोगभूमियोंके जातिस्वभाव नियमित है, यदि संपादकजी ज्ञाननत्रको मूंद भोगभूमि तथा कर्मभूमिकी प्रवृत्ति वि भंद नहीं समझेंगें तो अवश्य है कि-बहन और भाईका आपसमें विवाहका हुकुम जारी करेंगे और अपने मतसे भ्रष्ट हुए उन पर्यायनिसभी मोक्षहोना मार्नेगे, अरे भाई ! आप कर्मभूमिका अन्यसे क्या मिलान करते है यह तो वह वस्तु है जिसकी इच्छा देवभी करते हैं, बहुरि पशुओंमें, तथा माता, बहन, पुत्री
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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