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पुनर्विवाह जैनशास्त्रोक्त नहीं है। (भाई तिलोकचंद दौलतराम मिरजापूर निवासी लिखित) मुझको एक मित्रबाग जैनपत्रिका, जो लाहोरसे प्रकाशित होती है, उसकी संख्या ३८ माह जौलाई व ३९९ माह अगस्तकी दृष्टिगोचर हुई. मालूम होताहै कि संपादक जैनपत्रिकाने पातिव्रत धर्मका मृलोच्छंद करनेको कमर बांधी है और अपने पत्रमें प्रायः सभी स्त्रियोंको व्यभिचारिणी लिखाहै और उनको ऐसे अश्लील वाक्योंका प्रयोग कियाहै कि जिसको पढनेसे लज्जाको लज्जा आती है सम्पादकनीकी दृष्टि में सभी स्त्रियां व्यभिचारिणी प्रतीत होती है, सचहै जिसका जैसा आन्तरिक भाव होताहै उसको वैसाही दीख पडताहै सम्पादकजीने पातिव्रत धर्मको ताग्वपर रखकर विधवाविवाहके कुछ कल्पित फायदे दिखलाय हैं सा यदि धर्मका त्याग सांसारिक फायदाही देखनाहै तो चारी करनमें द्रव्यका फायदाहै, हिंगा करनेमें जिल्हाके स्वाद का फायदा है. वेश्यागमनादिकमेंभी क्षणिक सुखका फायदा है. विवाहकी रीति मेटकर म्वयंवर या और किमी भांनिसे मनुष्य स्त्रीको वर लिया करै तो द्रव्य ग्वचेक बचाव के फायदेके अतिरिक्त जो विवाहमें मान बडाईके हेतु अपना सर्व धन खर्च करकै ऋणी होकर कष्ट भोगते है उससे बचेंगे ऐसे ऐसे जैन धर्मके प्रतिकूल नर्क ले जानेवालको बहुतसे फायदे हैं आप एक विधवाविवाहहीके फायदेके लिये क्यों अपना शिर खाली किये देते हैं. ऐमेटी ऐसे पतित नीचकर्म करनेसे तो शूद्र की संज्ञा पडती है और नहीं तो जो जो हड्डी मांस शद्रोंके होती है वही धार्मिक उत्तम जनोंक भी होती है।
सम्पादकजी ! मेरे लिग्यनंपर नाराज न हुजिये स्थिरबुद्धि हा जरा गौर कीनिये कि इस घृणित और निंदनीय कायकी विधि क्या नवीन क्या प्राचीन किसी आचार्यने नहीं बतलाइ है. यदि यह कर्म करने योग्य होता तो अवश्य विधवाविवाहकी विधि शास्त्रोंमें पाई जातो. सो कहीं किसी शास्त्रमें लेशमात्रभी इसकी विधि नहीं हैं क्या पहिले आचार्य
आप संगविभी नीतिवेना और बुद्धिमान नहीं थे ? एक आपही नीतिमान् पैदाहुए ? वही मशलहै कि ( हम चुनी दोगरनेस्त ! यदि कहीं इसका प्रमाण होतो प्रगट क्यों नहीं करते ? मालम होता है कि आपने मलाशकरी जब जैनशास्त्र में इसकी विधि नहीं पाई तो लाचार होकर यह एक "नष्टे मृत प्रव्रजिते क्लीबेच पतिते पतौ ! पंचं स्वापन्य नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥" अन्य मतका श्लोक भोले भाइयोंको धोग्वा दैनके लिये प्रमाणमें लिख दिया वही कहावत हुई कि “कहींकी इंट कहींका रोडा, भानमतीने कुनवा जोडा." लेकिन इस श्लोककाभी अर्थ संपादकजीने किसी विहानसे निर्णय करकै नहीं लिखा, यदि निर्णय किया होता तो ऐसा कभी नहीं लिखते क्योंकि इस श्लोकका अर्थ कुछ औरही है जिसको कि हम प्रमाणपूर्वक भाइयोंके अवलोकनार्थ यहाँपर दर्ज करते हैं..
इस श्लोकमें 'पतौ' पद पडाहै वह संपादकजीने पति शब्दके सप्तमीका एक वचन समझाहै लेकिन जो कभी संपादकजीने व्याकरणका स्पर्शभी किया होतातो ऐसा कदापि नहीं लिखते; क्योंकि व्याकरणके “ अच्चपे" इस सूत्रसे इकार उकारसे परैका जो डि उसके स्थानमें मौत होय और पिके अन्तको अकारादेश होय लोकिन पति शब्दकी “पतिःसमास एव" इस सूत्रसे केवल समासमेंही घि संज्ञा होतीहै केवल पति दब्दकी घि संज्ञा नहीं है इसलिये