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वदन ॥ आदित्यप्रमुखासर्वे बद्धांजलभिरीशितु । ध्यायंतिभावतोनित्यं यदंघ्रियुगनीरज। कैलाशविमलेरम्ये ऋषभायंजिनेश्वरः चकारस्वावतारंयो सर्वः सर्वगतःशिवः॥
अर्थ-वीर पुरुषोंको मार्ग दिखाते हुवे सुर असुर जिन को नमस्कार करते हैं जो तीन प्रकार की नीति के बनाने वाले हैं वह युग के आदि में प्रथम जिन अर्थात् आदिनाथ भगवान हुवे । सर्वज्ञ सबको जानने वाले सबको देखने वाले सर्व देवों कर पूजनीक छत्र त्रय कर पूज्य मोक्षमार्ग काव्याख्यान कहते हुवे सूर्य को आदि लेकर सब देवता सदा हाथ जोड़ कर भाव सहित जिसके चरण कमल का ध्यान करते हुवे। ऐसे ऋषभ जिनेश्वरनिर्मल कैलाश पर्वत पर अवतार धारन करते भये जो सर्वव्यापी हैं और क. ल्यान रूप हैं ।
भावार्थ--जिन अर्थात् जिनेश्वर भगवान को कहते हैं जिनभाषित अर्थात् भगवान का कहा हुवा मत होने के कारण जिन मत वा जैन मत कहलाता है। उपरोक्त इलोकों में श्री ऋषभनाथ अर्थात् आदिनाथ भगवान् को जिनेश्वर कह कर महमा की है ।
शिवपुराण । अष्टषष्टिषतीर्थेषु यात्रायांयत्फलंभवेत् । आदि नाथस्यदेवस्य स्मरणेनापितद्भवेत् ॥
अर्थ--अड़सठ ६८ तीर्थों की यात्रा करनेका जो फल