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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. ही फल मिलेगा. यह नियम सदा नित्य है. इसी त्रानुसार ( परलोकोऽस्तीति मतिर्यस्यानियमसे सम्पूर्ण सृष्टिका सूत्र चलता है. इसके स्तीति आस्तिकः, और 'परलोको ना. बीचमें परमेश्वर कभी नहीं पड़ता. ऐसी जैनि- स्तिति मतिर्यस्यारतीति नास्तिकः) श्रद्धा योंकी श्रद्धा है. मनुष्यकी आत्मा रत्नत्रयके सा- कर तो जैनियोंपर नास्तिकत्वका आरोप नहीं घनसे उन्नतिकी ओर जाते २ निर्वाणतक पहुं- आ सक्ता, कारण जैनी परलोकका अस्तित्व चके ईश्वररूप हो नाती है, किंतु ईश्वर सृष्टिका माननेवाले हैं, स्वर्ग नर्क, व मृत्यु इन तीनिर्माता, शास्ता किंवा संहारकर्ता न होकर नोंको जैनी लोग मानते हैं, स्वर्ग बारह हैं अत्यन्त पूर्ण अवस्थाको प्राप्त हुआ आमा ही किंवा सोलह. इस विषयमें दिगम्बर श्वेताम्बर है. ऐसा जैनी मानते हैं. अत एव वह ईश्वरका सम्प्रदायोंमें मतभेद है. परंतु परलोकके विषअस्तित्व नहीं मानते हैं ऐसा नहीं है किंतु, यमें किसी प्रकारको शंका नहीं है, कर्मानुबंधसे ईश्वरकी कृतिसम्बन्धी विषयमें उनकी व हमारी पृथकू २ लोकोंमें भ्रमण करके पुण्य कर्मका समझमें कुछ भेद है. इस कारण जैनी नास्तिक पूर्णतया संचय हुआ कि जीव मोक्षपदको प्राप्त हैं. एमा निर्बल व्यर्थ अपवाद उन विचारॉपर होता है ऐसा वह समझते हैं, तब पालगाया गया है. कानुरूप फल प्राप्तिके अनु- णिनीयका अर्थ ग्रहणकरके जैनियोंपर नास्तिकत्वसार यह मंमार चल रहा है. ईश्वरपर इस स्थापित करना नहीं बन सत्ता, 'जिन्हें श्रुति सम्बन्धी कर्तव्यका भार कुछ भी नहीं आता है प्रमाण नहीं वे नास्तिक हैं, ऐसा अर्थ यदि प्रऐमा जैनी लोग कहते है. अतः यदि उन्हें हण करो तो वेशक जैन नास्तिक हैं. ऐसा स्वानास्तिक कहोगे तो, - कार करना चाहिये. कारण वे वेदोंको प्रमाण 'नं कर्तृत्वं म कर्माणि लोकस्य सजाति प्रभुः॥ नहीं मानते. यह जगत्प्रसिद्ध बात है, परंतु 'न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ क्रिश्चियन, मुसलमान, बौध व साम्प्रतमें उदय 'नादत्ते कस्यचित्यापं न कस्य सुकृत विभुः। प्रात ब्राह्मसमाजादि पंथ तक देदोंको प्रमा'अशानेनावृत जान तेन मुहयान्त जन्तवः॥ णिक न माननेस वे भी नास्तिकोंको कोटि मा (श्रीमद्भगवतगीता.) ऐसा कहनेवाले श्रीकृष्णजीको भी नास्ति- कग अत एव आ वंगे ! अत एव आस्तिक नास्तिक शब्दोंका कैसा कॉमें गणना करना पडैमी. आस्तिक व नास्तिक भी अर्थ ग्रहण करके जैनियोंको नास्तिक सिद्ध यह शब्द ईश्वरके अस्तित्वसम्बन्धों व क-करत नहीं बनता. तृत्वसम्बन्धमें न जोडकर पाणिनीय ऋषिके स- परलोक है, ऐसी जिसकी मति है वह मा. स्तिक और परलोक नहीं है। ऐसी जिसको मति है वह १ अर्थ---परमेश्वर जगतका कतूल व कर्मको नास्तिक है. उत्पन्न नहीं करता. इसीप्रकार कोंके फलकी योजना (२) 'पुण्य कर्मका' इसकी जगहें समस्त "शुभी नहिं करता, स्वभावसे सब होता है. परमेश्वर किसीका भाशुभ कमोंका नाश हुवा कि"-ऐसा कहना चाहिये। पाप नहीं लेता और न पुण्य लेता है. अज्ञानकेद्वारा क्यों कि जैनशास्त्रोंमें-कृत्स्नकमवियोगलक्षणा मोक्षः' झानपर पडदा पड़ जानेसे प्राणीमात्र मोहमें फस आते हैं. | ऐसा मोक्षका लक्षण कहा है.
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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