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जैनधर्मपर व्याख्यान. पर भी उनकी जातिमें मद्यपानका प्रचार बिल- | जैनियोंकी शास्त्रोक्त दिनचर्या इस प्रकार कुल नहीं है और हिन्दुओंके धर्मशास्त्रमें वह . होना चाहिये. उन्हें प्रातःकाल निषिद्ध माना जानेपर भी हम लोगोंमें इसका शाखाक दिन- शीघ्र ही उठना चाहिये. मुख व्यसन अधिकतासे होता जाता है, यह विरोध
वगैरह धोनेसे पहिले मंत्रका पाठ भी बड़ी दिल्लगीका है.
करना और वह पाठ अंगुलियोंपर गिणना. इष्ट गुण कहे हैं. एक मूलगुण दूसरे उत्तरगुण, इनमेंसे | ये सब हिंसाका त्याग करनेवालोंको यत्नपूर्वक सबसे उत्तरगुण किसीसे धारण नहि किये जाय तो विशेष
पहिले त्याग करना चाहिये.॥ ४ ॥ मद्य मनको मोहित हानि नहीं. परन्तु मूलगुण तो गृहस्थी और साधुको ( विचाररहित उन्मत्त ) करता है. और उन्मत्त अवश्य ही धारन करना चाहिये. गृहस्थीके मलगण पुरुष धर्मको भूल जाता है अर्थात् धर्मरहित हो जाता ८ हैं. साधुके मूलगुण २८ है. गृहस्थाकं मलगण यथा- हैं. धर्मरहित निर्भय स्वच्छंद होकर हिंसाको आचरण मद्यमांसमधत्यागैः सहाणवतपक्षा करने लग जाता है. इसकारण मद्य सर्वथा तजनेयोग्य अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमः ॥१॥ है. इसप्रकार आठ मूलगुणका कथन करके कहत है कि
समन्तभद्राचार्यकृत रत्नकरंडश्रायकाचारमें. ! अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनिपरिचय अर्थ-मद्य मांस और मधु इन तीनोंका त्याग जिनधर्मदेशनाया पात्राणि भवन्ति शुद्धधियः करना और पांच अणुव्रत पालने इस प्रकार गृहस्थीके अर्थ- जो मनुष्य उपर्युक्त आठ पापके स्थानोंको आठ मूल गुण गणधरोंने कहे हैं,
त्याग कर देता है वह ही निर्मल बुद्धिका धारक जिनधर्मके सहतिपरिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमाद उपदेश पानेका पात्र है. अर्थान् जबतक इन आट परिहृतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शर- द्रव्योंका त्याग नहिं करे तबतक उस मनुष्यको जिनधमुपयातः ॥२॥
मका उपदेश नहिं लग सक्ता. समन्तभद्राचार्यकृतरत्नकरण्डश्रावकाचारमें. हिंसाऽसत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाश्ववादरभेअर्थ-जिनेश्वर चरणांमें शरण होनेवाले मनु- दाता द्युतान्मासान्मद्याद्विरतिरोहिणोऽष्ट स. प्योंको त्रस जीवोंकी हिंसा टालनेकेलिये मधु और न्त्यमी मूलगुणाः॥ मांसका त्याग करना और प्रमादको दूर करनेकेलिये।
श्रीजिनसेनाचार्य: हिंसाके कारण मद्यका त्याग करना चाहिये.
। अर्थ-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह धुतमांस सुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः।
। इन पांच पापोंका स्थूलपणे त्याग करके जूआ, मांस महापापानि सप्तव व्यसनानि त्यजेद्बुधः ॥३॥ मय ये छे.डनें गृहस्थकं आठ मूलगूण है.
पद्मनन्दपञ्चविशीतकामें. अर्थ--जूआखेलना, मांसभक्षण, सुरापान, सिकार
| हन्यते येन मर्यादा बल्लरीव दवाग्निना। खेलना, वेश्यारमन, चौर्य, परस्त्रीरमन ये सात व्यसन
तन्मयं न त्रिधा पेयं धर्मकामार्थसूदनम् ।। महा पाप हैं, अतः इनको छोड देवें.
अमितगत्याचार्यकृतधर्मपरीक्षामें. मद्यं मासं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन।। ___ अर्थ-जिस मद्यकेद्वारा दावानलसे लताकी समान हिंसाव्युपरतिकामैोक्तव्यानि प्रथममेव ॥४॥ लोकमर्यादा नष्ट हो जाती है. ऐसे धर्मअर्थकामको मद्यमोहयतिमनोमोहितचित्तस्तुविस्मरतिधर्म नष्ट करनेवाले मद्यको कदापि नहिं पीना चाहिये. विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति ॥५ इत्यादि प्रत्येक श्रावकाचारमें सबसे पहिले हिंसाकी
अमृतचन्द्रसूराकृतपुरुषार्थसिद्धयुपायमें. | खानि मद्य, मांस, मधु इन तीन अभक्षोंके त्याग अर्थ-मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बरफल करनेका उपदेश है.