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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. - - तो मारने नहीं देते. पैसे देकर उन्हें छुड़ा देते हैं; आहिंसातत्त्व पालनेलिये 'इंढिये' नामक जैनमत्कुणों ( खटमलों ) का पींजरापोल बनाके शाखाके लोक मलोत्सर्गके समय जो घिनावना उसमें मोटे ताजे आदमीको पैसे देकर सोनेके कार्य करते हैं, उस वीभत्स व्यापारके वर्णन लिये भेजते हैं, ऐसा एकबार सुना था परन्तु करनेमें संकोच होता है ! किसी भी उत्तम बातकी यह बात झूट है, ऐसा मेरे एक जैनमित्रने कहा। अनुसंधानता पूर्वक चलनेमें भी मितपना व रीति है, कितनेक जैन तो हिंसा अपने हाथसे न नीतिका विचार न किया जावे तो विपरीत परिणाम होने पायें इसकेलिये अनेक चेष्टा करते हैं इसका होता है, यह बात इन लोगोंके लक्ष्यमें अभीएक नमूनेके तौरपर उदाहरण कहता हूं, यह तक नहीं आती, ये 'इंडिये' लोक ठंडा पानी किंचित अत्युक्तिका है; तथापि उससे जैनियोंकी नहीं पीते; कारण ठंडे पानीमें सजीव प्राणी अहिंसाविषयक सावधानी दृष्टिगत हुएविना नहीं रहते हैं, अतएव वे भातका मांड किंवा शाकका रहेगी; गर्मीके दिनोंमें गाय, भैंस वगैरह पशु पानी पीते हैं ! परन्तु पानी तप्त करते लक्षावधि गर्मीका संताप दूर करनेकेलिये वृक्षोंकी छायामें जीव उष्णतामें तड़फकर मरजाते हैं. यह उन आरामसे बैठी हुई किसी भाविक जैनीने देखी, ... ... तो वह तत्काल ही उन्हें उसायासे उठा देता (१) दूडिये लोग-स्वेताम्बरोनियों से निकला " हुवा एक छोटासा फिरका है. यह मन कोई २५० वषोंसे है. कारण, पशु छायामें आरामसे बेजेंगे तो वे निकला हवा जिनमतक शास्त्रोंसे सर्वथा विरुद्ध है. इनके वहां पेशाब व गोबर करेंगे, और पीछे उस | साधु ठंडा पाणी नहिं पीते. बाकी जैनी गृहस्थोंको मलमत्रों कीड़े उत्पन्न होंगे; वे यत्र तत्र : ठंडा पाणी योग्य वस्त्रसे छानकर एक मुहूर्तपर्यंत पीनेकी फैलेंगे व अन्तमें धृपके संतापसे मर जावंगे, · सर्वत्र आज्ञा है. इस अपेक्षासे पशुओंको छायामें न बैठने देनसे... - (२) हिंसा ४ प्रकारकी है. १ संकल्पी हिंसा, २ आरंभी हिंसा, ३ उद्यमी हिंसा और ४ विरोधी हिंसा. जीवोंकी हिंसा अवश्य ही टलैंगी. काहिये यह अपन चित्तसे चाहकर जावोंको मारना सो तो 'संककितनी दूरदर्शिता और कितनी यह भूतदया है ? ल्पी हिंसा' है. गृहस्थके कूटने, पीसने, रसोई बनाने, .... - बुहारी देने वगेरह आरंभमें यत्नाचारपूर्वक प्रवर्तनेपर करके अन्यान्य उपायोंसे दूर करना चाहिये, निःसहाय भी जीवोंकी हिंसा होती है उसको 'आरंभी हिंसा' अनाथ क्षुद्रजीव तो दूर ही रहो किंतु सर्प, विच्छु, । कहते हैं. धान्य वगेरह भरने आदि रोजगार करनेमें जो व्याघ्रसिंहादि हिंस्र जंतुओंको भी मारना सर्वथा अनु- जीवहिंसा होती है उसको 'उद्यमी हिंसा' कहते हैं चित है. इसके सिवाय अपने एक दो चार हिंन जंतुवोंके : और राजालोगोंको प्रजाकी रक्षार्थ देशकी शांतिस्थापनार्थ मारनेसे समस्त जगतके हिंस्र जंतु नष्ट हो सके हैं सो भी : दशमनकी फौजसे लड़ाई वगैरहके करनेमें वा विशेष तो नहीं है इस कारण उनका वध नहिं करके अन्यान्य प्रबंध करनमें जो हिंसा होती है उसको 'विरोधी उपायोंसे अपनेको बचा लेना ही सर्वथा योग्य है. हिंसा' कहते हैं. इन चार प्रकारका हिंसावोंमेंसे गृहस्थ (१) जिस प्रकार खटमलोंके पिंजरापोलकी बात : श्रावक केवलमात्र संकल्पी हिंसाका त्याग कर सकता है. सर्वथा असत्य है, इसीप्रकार गौ भैसोंको छांहमेंसे उठा अन्य तीन प्रकारकी हिंसावोंका गृहस्थोंको यथाशक्ति देना भी मर्वथा झूठ और भिन्न धर्मियोंकी अत्युक्ति | त्याग करनेका उपदेश है, सो गृहस्थते जहाँतक । बनता है ममस्त कार्याम दया रखकर यत्नाचाररूप प्रव
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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