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श्री वीतरागायनमः रा. रा. वासुदेव गोविंद आपटे बी. ए. का
जैनधर्मपर व्याख्यान.*
यो विश्वं घेद घेचं जननजलनिधर्मगिनः पारसया। पौर्वापर्याविरुवं वचनमनुपमं निष्कलई यदीयम् ॥ हे वन्दे साधुबन्धं सकलगुणनिधि बस्तदोषद्विषन्तम् । बुद्ध वा बईमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥१॥
इस श्लोकमें श्रीमद्भट्टाकलङ्क देवने “ जानने अनुपम और निर्दोष हैं, जो सम्पूर्ण गुणोंका निधि योग्य ऐसे सम्पूर्ण विश्वको जिसने जाना, संसा- | (खजाना) साधुओं करके भी वन्दनीय है, जिसने ररूपी महासागरकी तरंगे दूसरी तरफ तक रागद्वेषादि अठारह शत्रुओंको नष्ट कर दिये हैं जिसने देखी. जिसके वचन परस्पर अविरुद्ध, और जिसकी शरणमें सैकड़ों लोग आते हैं, ऐसा
• उस व्याख्यान रा. रा. वासुदेव गोविन्द आपटे, जो कोई पुरुष विशेष उसको मेरा नमस्कार होओ. बी. ए. इन्दौरकरने मुम्बयीस्थ हिन्दू यूनियनक्लबमें गत दिसम्बर मासमें दिया था और मुंबईके 'विविधज्ञानविस्तार' (नामक मराठीके प्रसिद्ध मासिकपत्र) में जनवरीके अंकमें प्रकाशित हुआ था उसीका यह हिन्दी अनुवाद है. इसके पढनेसे पाठकोंको ज्ञान होगा;कि भिन्नधर्मा निष्पक्ष विद्वजन जैनधर्मको कैसा समझते हैं. हम हैं. हमारे मन्दिरोंमें इनकी मूर्तियां हैं. व इसकेलिये व्याख्यानदाताको कोटिशः धन्यवाद देते हैं | कि, जिन्होंने महत्परिश्रम उठा कर जिनधर्मके ग्रंथोंको प्रतिदिन
प्रतिदिन हम उनका पूजन करते हैं. तीसरा देखकर परिचय किया. और अपने विचारोंको सबके बुद्ध, इसके विषयमें भी अभीतक बहुतसा इतिसामने प्रगट किया. यहांपर हम मूल व्याख्यानका हास उपलब्ध हुआ है, बुद्धके दो तीन चरित्र अनुवाद ज्योंका त्यों लिखकर उसमें अपनी तरफसे टिप्पणी करते हैं. इस टिप्पणीसे कोई महाशय ऐसा न समझ लेंकि व्याख्यानदाताकी शोधकतामें कुछ न्यूनता हो. क्षत्रिय कुलोत्पन्न पुरुष अत्यन्त तरुण अवस्थामें क्यों कि कैसा ही विद्वान् क्यों न हों भिन्न धर्मपर व्याख्यान | राजश्रीसे विरक्त हो सर्व संगका परित्यागदेनेपर कहीं न कहीं पोड़ी भूल होती है. सो जहाँपर कर चल निकला व पश्चात्, ज्ञान सम्पादन कर वास्तविक विषय छुट गया है और भभिप्रायमें अन्यथा
। यह हुवा है, उसी विषयकी टिप्पणी की जाती है-आशा है | कि, ग्याख्यानदाता इसपरसे कुछ अन्यथा न समझेंगे.
अनुवादक. बौद्धधर्मका संस्थापक हुआ इत्यादि कथा