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स्वदेशी आन्दोलन और बायकाट ।
देते हैं । बहुतेरे जुलाहों के नाम कम्पनी के रजिस्टर में दर्ज रहते हैं। उन्हें किसी दूसरे मनुष्य का काम करने की इजाजत दी नहीं जाती। इस व्यवहार में जो उत्पात होता है वह सचमुच कल्पनातीत है और उसका अंतिम फल यही होता है कि बेचारे जुलाहे उगाए जाते हैं ! जिस वस्तु की कीमत, खुले बजार में, १०० रुपये आती उसके लिये उन्हें सिर्फ ५०-६० रुपये दिये जात हैं । जब जुलाहे इस प्रकार की कड़ी शर्त पूरी कर नहीं सकते-- जब व तमस्मुक में लिखी हुई शर्तों के मुताबिक माल तैयार नहीं कर सकते - तब उनकी सब जायदाद छीन ली जाती है और उसको बेचकर कम्पनी के रुपये वसूल कर लिये जाते हैं। रेशम लपेटनेवालों के साथ ऐसा अन्याय का ती किया गया है कि उन लोगों ने अपने अंगूठे तक काट डाले; इस हेतु से कि उन्हें रेशम लपेटने का काम ही न करना पड़े !"
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इस तरह अनेक अन्यायी, कठोर और जालिम उपायों से, अंगरेजों ने, इस देश के जुलाहों और अन्य व्यवसाइयों का रोजगार बंद कर दिया ।
सन् २०६५ ई० से. इस देश में, ईस्ट इन्डिया कम्पनी की व्यवस्थित राजसत्ता का आरंभ हुआ और तभी से हमारे व्यापार को नष्ट करने के, उपर्युक्त जालिम उपाय बंद होकर व्यवस्थित और सभ्यता के उपायों की योजना होने लगी । अर्थात इस देश के व्यापार को बरबाद करने के हेतु इंग्लैन्ड के लोग कानून बनाने लगे ! कम्पनी के डाइरेक्टरों ने यह हुक्म जारी किया कि, “बंगाल के लोगों को रेशम का कपड़ा बुनने से रोकना चाहिए। वहां के लोग सिर्फ कच्चा रेशम तैयार करें। उस रेशम के कपड़े इंग्लैन्ड के कारखानों में बुने जायँगे । रेशम लपेटनेवालों को कम्पनी ही के कारखानों में काम करना चाहिए। यदि वे बाहर ( किसी दूसरी जगह ) काम करें तो उनको सख्त सजा दी जाय ।" सरांश, अंगरेज लोगों ने इस देश के जुलाहों से यह कहा कि " तुम लोग कपड़ा बुनने का काम छोड़ दो; हम लोगों को सिर्फ कच्चा माल दिया करो। हम लोग, तुम्हारे लिये, कपड़ा बुन देंगे ।" इस आज्ञा का पालन बड़ी सख्ती से होने लगा और अंत में इसका परिणाम यह हुआ कि भारतवर्ष में सिर्फ कच्चा माल तैयार होने लगा और