SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आक्षप-निवारण। का विलायती माल लिया जाय, तो ये चार करोड़ रुपये सब विलायत को चले जायेंगे; और यदि चार करोड़ के विलायती माल के बदले पांच करोड़ का स्वदेशी माल लिया जाय तो ये पांच करोड़ रुपये सब इसी देश में बने रहेंगे । इस कथन में कुछ भी सत्य का अंश नहीं है, कि चार करोड़ का विलायती माल लेने के बदले पांच करोड़ का स्वदेशी माल लेने से इस देश के एक करोड़ की हानि होती है। हां, इसमें संदेह नहीं कि ग्राहकों को, स्वदेशी वस्तु खरीदने से, एक करोड़ रुपये अधिक देने पड़ते हैं। स्मरण रहे कि ये एक करोड़ रुपये किसी अन्य देश में चले नहीं जाते-वे सब इसी देश में रह जात हैं; और, अर्थशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार, वही द्रव्य, नये नये कारखाने खोलने के समय, पूंजी का काम देता है । स्वदेशी आन्दोलन से-स्वदेशी वस्तु के व्यवहार की प्रतिज्ञा से-और विदेशी वस्तु पर कर लगाने से, देशी व्यापार को जो उत्तजन दिया जाता है उसका मार्ग यही है। इस उद्देश की सफलता के लिये अन्य मार्ग ही नहीं । जय विदेशी वस्तु पर कर लगाने से, या स्वदेशी वस्तु के व्यवहार की प्रतिज्ञा से, पदार्थों की कीमत बढ़ जाती है, तभी कारखानेवालों को बहुत नका होता है और वह नका पूंजी के रूप में, नये नये कारखाने खोलने में, लगाया जाता है। अर्थशास्त्र का यह सिद्धान्त है कि जब किसी वस्तु की मांग अधिक होती है, तब वह महँगी हो जाती है; अर्थात् उसकी कीमत बढ़ जाती है । कीमत के बढ़ जाने से नफा अधिक होता है और पूंजीवाले, उस पदार्थ के उत्पादन में, अपनी पूंजी लगाने लगते हैं। इससे उस वस्तु की आमद बढ़ जाती है और क्रीमत फिर भी पूर्ववत् हो जाती है। इसीको मांग और श्रामद का समीकरण कहते हैं । इस प्रकार जब कारखानेवालों का नका बहुत बढ़ जाता है और देश में नये नये कारखाने खोले जाते हैं तब देशी वस्तु बहुतायत से बनने लगती हैं और उनकी कीमत घट जाती है। जो लोग यह कहते हैं कि स्वदेशी आन्दोलन से देशी वस्तुओं की कीमत बद जाती है और देश का नुकसान होता है, वे लोग अर्थशास्त्र के उक्त सिद्धान्त के सम्बन्ध में अपना अज्ञान प्रकट करते हैं। स्वदेशी आन्दोलन--स्वदेशी वस्तु के व्यवहार की प्रतिज्ञा-और संरक्षित व्यापार-तीति एक ही बात है। सिर्फ
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy