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परिशिष्ट.
विलासित मति राजा हे पुत्र हे प्यारे ऐसे अनुरागसे अति लालन करत परम आनन्दको प्राप्त हो तो भयो ॥ ४ ॥
सब पुरकी प्रजा, देशको अनुराग जान राजा नाभी अपने पुत्रकी धर्म मर्यादा रक्षाके अर्थ अभिषेक कर ब्राह्मणों के ऊपर छोडकर मरुदेवीकों ले बदरिकाश्रममें जाय प्रसन्न मनसे सुन्दर तप समाधि योग करके नरनारायण भगवान वामुदेवकी उपासना कर काल करके जीवन्मुक्त होयके तिनकी महिमाको प्राप्त होते भये ॥ ६ ॥
नाभि से और ब्रह्मण्य कौन हैं जाने विप्रनकी मंगलमें पूजा कौनी जाके यज्ञमें पराक्रम करके यज्ञेश दर्शन देते भये ॥ ७ ॥
अब भगवान् प्रभदेव अपने खंडको कर्म क्षेत्र मानकर गुरुकुलमे वासकर गुरुमे वर और आज्ञा लेकर गृहस्थी के धर्मनकी शिक्षा करत इन्द्रकी दी भई जयन्ती भायो में अपने समान शत पुत्रनको उत्पन्न करते भये ॥ ८ ॥
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श्रुति स्मृति विहित दो प्रकारके कर्म कहिकर बेदको शिक्षा करते भये. जिनमें निश्चय करके महायोगी भरतजी ज्येष्ठ श्रेष्ठ गुणी होते भये जिनके नाम से यह देश भारतवर्ष कहा है ॥ ९ ॥
तिनके पीछे कुशावर्त इलावतं ब्रह्मावर्त मलयवेत् भद्रसेन इन्द्रस्युक विदर्भ कोकट चे नवखण्ड भये ये नव्वे में प्रधान भये ॥ १० ॥
कवि हारे अंतरीक्ष प्रबुद्ध पिप्पलायन आविहान और द्रुमिल चमस करभाजन 177 0
ये भागवत समान दर्शन योग्य नव महाभागवत है तिनको सुन्दर चरित्र भगवनकी महिमा करके वडो भयो बसुदेव नारदजी के संवाद सबकी शांति करवेवारो आगे एकादशक ऐसो जाननो योग्य है ।। १२ ।।
वर्णन करेंगे
छोटे इक्यासी जयंती के पुत्र पिताकी आज्ञा करनेवारे महाशीलवान महाप्रोत्रिय यज्ञशील सदा विशुद्धकर्म कर ब्राह्मण होते भये ।। १३ ।।
भगवान ऋभ आप स्वतंत्र सव अनधों की परम्परा जिन्होंने निवन कीनी केवल आनन्द अनुभवी ईश्वरही थे सो विपरीतकी नाई कम्मको प्रारंभ करते भन्ने जो या बात नहीं जानते है उनको कालके अनुसार धर्माचरण शिक्षा करते समभावमें रहे, महाशांत मैत्र दयालु धर्म अर्थ यश प्रजाको आनन्दरूप अमृत मुख
करके घरों लोगनको लगावते भयं ॥ १४ ॥
जो महात्रे लोग आचरण करें है बाके समान लोग भी करने लगे ॥ १७ ॥
अपनेको विदित सकल जो ह्म सम्बंधी होमो
के दिखाये भये मार्गसे साम आदि उपायों
से जन समूहों को शिक्षा करते भये ।। १६ ।।
द्रव्य, देश, काल, अवस्था, श्रद्धा, ऋत्विग इन करके अनेक प्रकार से सब यज्ञों करके बढे भये कर्म करके जैसे उपदेश हो तो शतवार अश्रमेधयज्ञ करते भये ॥ १७ ॥
भगवान रूपभदेवजी करके रक्षित या भरतखंड में अपनी अविद्यमान आकाशपुष्पकी नाई अपने से, और ते कोई प्रकार से कदी कुछ भी कोई पुरुष चांछा न करती भयो अपने स्वामी रूपमदेवजीसे क्षण में अत्यंत बढो भयो के अत्यंत उत्कर्षता विना और काऊकी इच्छा न देखे ६ ॥ १८ ॥
सो कोई समय विचारते भये रूपमदेवजी ब्रह्मावर्त में आये ब्रह्मऋषी प्रवरोको सभामें सब प्रजाजन के. सुनते वशीभूत जिनके चित्त उन पुत्रोंको महा दयालुता के भारसे वशीभूत शिक्षा करते ये बोले जो आगे की अध्याय में है ॥ १९ ॥
पाँचवाँ अध्याय.
श्री ऋषभदेवजी बोले कि हे पुत्र हो या मनुष्य लोक में देहधारीन के बीच में ये देह करदायक कामनान के