SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. तो आप विचार सक्ते हैं कि उसके आचार कैसे होंगे । इस प्रकार हम ईश्वरमें श्रद्धा करते हैं उसके विषयमें केवल हमारा मंतव्य भिन्न है, जो लोग हमको नास्तिक बताते हैं, वे झूठे हैं क्योंकि हम ईश्वरको मानते हैं । ५० महाशयों ! क्या मैं, आपसे एक शब्द में यह भी न पूंछलूं कि जो लोग कहते हैं कि जैनियों को कोई तत्त्वविद्या नहीं है वह क्या भूलमें नहीं है ? क्या हमारी कोई फिलासफी नहीं है ? क्या जो ऊपर लिखा गया है वह फलसफा नहीं हैं? आप माधवके बनाये ये सर्वदर्शनसंग्रह नामक पुस्तकको पढ़ें उससे भी आपको मालूम होजायगा कि जैनियोंका कोई दर्शन है या नहीं || रत्नत्रय महाशय ! जिंदगी के इस गृह प्रश्नके उत्तर में विश्वास करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं. उस उत्तरका जानना सम्यगज्ञान और उसके अनुसार आचरण करना सम्यक् चारित्र कहलाता है सम्यगदर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों का नाम रत्नत्रय वा तीन रत्न हैं | सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी व्याख्याकी कुछ आवश्यकता नहीं हैं अब रहा सम्यक् चारित्र अथवा स्वर्ग और अन्तमें मोक्षकी मातिकेलिये जैनीका कैसा आचरण होना चाहिये । यह चारित्र दो प्रकारका है अर्थात् श्रावकका चारित्र और मुनिका चारित्र. महाशयो ! यहां यह भी ध्यान रक्खो कि श्रावगी कोई शब्द नहीं हैं असली शब्द श्रावक है जिसको मूर्ख लोगोंने बिगाड़कर श्रावगी बना दिया है | श्रावक दो प्रकार के हैं अवतसम्यग्दृष्टी अर्थात् व्रतकरके अपने चारित्रका श्रावकके पालन नहीं कर सक्ते और व्रतश्रावक जो कि व्रतकरके अपने चारित्रको आचरण रखते हैं. व्रतश्रावकके चरित्रमें ग्यारह प्रतिमा शामिल हैं ये शालाकी श्रेणियोंकी तरह ग्यारह दर्जे हैं। पहली से छट्टी प्रतिमातक के श्रावकको जघन्य श्रावक कहते हैं छट्टी से नववी पर्यंत मध्यम और नववीसे ग्यारहवीं प्रतिमातक के श्रावकको उत्कृष्ट श्रावक कहते हैं । प्रथमप्रतिमा- पहली प्रतिमा के श्रावकको नीचे लिखेहये नियम रखने पडते हैं ॥ ग्यारह ( क ) मैं सच्चे देव गुरु और धर्म में विश्वास करूंगा. प्रतिमा (ख) मैं अष्ट मूलगुणको पालूंगा अर्थात् मैं मधु मद्य और मांस जो तीन मकार कहलाते हैं और बड़, पीपर, ऊमर, कतुमर और पाकरके फल जिनको पंच उदम्बर कहते हैं इन भाठोंको नहीं खाऊंगा ।
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy