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जैनधर्मपर व्याख्यान. स्ताः गानोस्मभ्यमाभराहरनकेवल ताएवकिंतर्हि प्रमगंदस्य द्वैगुण्यादिलक्षणपरिमागंगतोर्थामामेवगमिष्यतीतिबुदया परेषांददातीतिमगन्दोवा(पिकातस्यपित्यं पुत्रादिः अमनन्दःप्रस्कण्वादिवदपत्यार्थः प्रशब्देनद्योत्यते तस्यात्पन्तकुसी दिकुलस्य वेदोधन माहर किंच हेमघबन्धनवनिन्द्रनैचरशाखनोचावुशूद्रयोनिषुउत्पादिताः शाखाःपुत्रपौ त्रादिपरम्परायेनसचाशाखःशूद्रापत्यैश्चकेवलैः शूद्रावेदीपतत्यधइति चर्चपातकहेतुत्वे नस्मरणात् तस्य संबधिधननैचाशाखांतदनंनोऽस्मभ्यं रन्धयसाधयएतेषां यद्धनं तव नोपयुज्यतेऽस्मदायत्तं तु तदनं पागादिद्वारातवोपयुज्यते तस्मात्तदस्मभ्यं प्रयच्छतिभावः (भाव) ॥
अर्थ है इन्द्र जिनमें अनार्य लोग रहते हैं ऐसे देशो अथवा जो पुरुष ऐसा कहते हैं कि यज्ञादि दान करनेसे क्या फायदा होता है ? अपनी इच्छानुसार आहार बिहार करना चाहिये. ऐसे नास्तिकांके पास जो गायें हैं उनसे तुझारा क्या फायदा निकलता है क्योंकि वे लोग सोमरसमें मिलानेके योग्य उनका दूध कभी नही दुहत. इसकारण किसी वैदिक कर्ममें न आनेवाली गायें तुम हमको दो, और जो पैसा उधार देकर दुगुना पंसा करते हैं और तुमारे काममें उस पैसेको नहीं लाते उनके पैसेको भी तुम हमको दो इसी तरह नीच शाखाओंमें उत्पन्न हुये पुरुषोंका जो धन हैं, वह भी हमको दो. क्योंकि उनका धन तुम्हारे काममें नहीं आता. और हमारा धन यज्ञादि द्वारा तुम्हारे काममें आता है।
फिर महाशयो ! पुराने भारत वर्षके सबलोग व्यासमुनिके न्यायंक ही पक्षपाती नहीं थे, न वे सब एक नपुंसक ब्रह्मपर विश्वास करते थे. वल्कि उनमें से बहुतसे ऐसे भी थे जो कपिलकी तरह कहते थे
"ईश्वरासिद्धः" (सांख्यदर्शन अ० १ सूत्र ९२) अर्थ-ईश्वर सिद्ध नहीं हुआ है.
ऋग्वेदमंडल ८ अध्याय १० सूक्त ८९ चा ३ में भागवनामी ऋषि कहते हैं कि कोई इन्द्र नहीं है और न किसीने उसको देखा है, जब इन्द्र ही नहीं है तो हम किसकी स्तुति करें? यह केवल लोगोंका वृथा कहना है कि इन्द्र भी कोई है यथार्थमें कोई इन्द्र नहीं हैं
“नेन्द्रोस्तीतिनेमउत्त्व आह कई ददर्शकमभिष्ट वाम" ॥ ३ ॥ सायनभाष्य-इन्द्रोऽस्तित्वेकः सन्देहः । तत्राह-नेमउभार्गवीनेम खेन्द्रोमामत्वः कधिसास्तीत्याह । तत्र कारणं दर्शयति । कईमेनमिन्द्रं ददर्श अद्राक्षीत् । न कोप्य पश्यत् । अतः करयमभिष्टवाम अभिष्टमः । तस्मादिन्द्रोनामकश्चिद्विचते इति ।