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जैनधर्मपर व्याख्यान.
१३ शांतिपर्व मोक्ष धर्म अध्याय २६४ श्लोक ३ में जाजुली तुलाधार को नास्तिक कहता है--
“नास्तिक्यमपि जल्पसि" अर्थ--नास्तिक्य भी वकवाद करता है । इसकी टीका नीलकंठ ने इस प्रकार की है कि नास्तिक्य वह है जो वैदिक यज्ञकी हिंसा के विरुद्ध हो
“नास्तिक्यं हिंसात्मकत्वेन यज्ञनिन्दा" अर्थ-नास्तिकपणा हिंसा होने के कारण यज्ञ की निन्दा करना है।
इस से प्रकट होता है कि उस समय में जब महा भाग्न बनाई गई थी वा इस मे भी पहिले नास्तिक थे. जो वैदिक यजों की निन्दा करते थे. वे सांरव्य मती नहीं हो सने क्योंकि वे नास्तिक नहीं हैं. वे अवश्य जैनियोंके सदृश अन्य संप्रदाय होंगे।
योगवाशिष्ट के वैराग्य प्रकरण में गम ने 'जिन के सदृश शांत होने की इच्छा की है श्लोक. इस प्रकार है
नाहं रामो न मे वाच्छा भावेषु न च मे मनः । शान्तमास्थातमिच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा ॥
(अध्याय १५ श्लोक ८) अर्थ---में राम नहीं हूं मुझ को किसी प्रकार की इच्छा नहीं हैं विषयोंमें मेरा दिल लगता नहीं है. 'जिन' के सदृश अपने माफिक सब प्राणियोंपर समदृष्टी रख कर शांत रहना चाहता हूं।
रामायण के बालकांड सर्ग १४ श्लोक २२ में दशरथ का श्रमणों को भोजन देना लिखा है--
दशरथयज्ञे-बामणाभुचते नित्यं नाथवन्तश्चभुञ्जते ।
तापसा भुञ्जते चापि श्रमणाश्चैव भुञ्जते ।। __ अर्थ-दशरथ के यज्ञ में हिजलोग (ब्राह्मण, क्षत्री और वैश्य) और शूद्रनित्य भोजन करते हैं । तापस अर्थात् शैवमार्गी और श्रमण भी भोजन करते हैं। श्रमण शब्द का अर्थ भूषण टीका में दिगम्बर किया है
"श्रमणा दिगम्बरा श्रमणा वातवसना इति निघंटुः" । तिलक की बनाई टीका में श्रमणों का अर्थ बौद्ध सन्यासी लिखा है और यह प्रायः जैन साधुओंकी अपेक्षा वौद्धों के लिये ही आता है. इसलिये हमको इस शब्द पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिये, यह संभव है कि दशरथने जन और बौद्ध दोनों