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________________ ९३९ की कमी होने के कारण उत्तरोत्तर विशुद्ध, विशुद्धतर ही होती है । इन्द्रि विषय Count प्रश्नों के उत्तर दूर से इष्ट विषयों को ग्रहण करने का जो इन्द्रियों का सामर्थ्य है, वह भी उत्तरोत्तर गुण की वृद्धि और संक्लेश की न्यूनता के कारण ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक अधिक है । * अवधिज्ञान का विषय अवधिज्ञान का सामर्थ्य भी ऊपर-ऊपर के देवों में ज्यादा ही होता है। पहले दूसरे स्वर्ग के देव प्रधोभाग में रत्नप्रभा तक, तिरछे भाग में असंख्यात लाख योजन तक और ऊर्ध्वभाग में अपने-अपने विमान की ध्वजा तक अवधिज्ञान से जानने का सामर्थ्य रखते हैं । तीसरे, चौथे स्वर्ग के देव अधोभाग में शर्करा प्रभा तक, तिरछे भाग असंख्यात लाख योजन तक और ऊर्ध्वभाग में अपने-अपने विमान की ध्वजा तक अवधिज्ञान से देख सकते हैं । जिन देवों के अवधिज्ञान का क्षेत्र समान होता है, उन में भी नीचे को अपेक्षा ऊपर के देव -- • लज्जा नहीं करता, स्वयं तप नहीं करता । न दूसरों को करने देता है । नित्यकपटी, रहित, रसगृद्ध और महान आलसी होता है । कापोतलेश्यावाला बांका बोलता है, चलता है, स्व-दोषों को ढकता है, दूसरे के दोषों को प्रकट करता है। चौर्य श्रादि दूषणों का कन्द्र होता है । तेजो-लेश्या वाला- न्यायी स्थिरस्वभाव, सरल, कुतूहल- रहित, दान्त, पापभीरु, धर्मी और प्रियधर्मी होता है । पद्मलेश्या वाला सदा उपशान्त रहता है, 'मन, वाणी और काया को वश में रखता है । शुक्ल - लेश्या वाला श्रार्त और रौद्र ध्यान से अलग होकर धर्म और शुक्ल ध्यान में मग्न रहता है। दान्त, सरोगसंयमी या वीतरागी होता है । * इन्द्रियों और मन की सहायता लिए बिना ही केवल आत्मा की शक्ति से रूपी पदार्थों का मर्यादा-पूर्वक जो ज्ञान ग्रहण किया जाता है, उसे अवधि - ज्ञान कहते हैं ! - " ·
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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