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________________ अठारहवां अध्याय और दस कोटाकोटि सागरोपम का उत्सर्पिणी-काल है। दोनों को मिला कर बीस कोटाकोटि सागरोपम का एक कालचक्र कहलाता है ! ऊर्ध्वलोक मेरुपर्वत के समतल से ९ सौ योजन नीचे और ९ सौ योजन - ऊपर, कुल १८ सौ योजन में मध्यलोक है । इस में सर्वोच्च शनैश्चर का विमान है । शनैश्चर के विमान की ध्वजा से ऊर्ध्व-लोक का प्रारंभः होता है । यहां से १1⁄2 राजू ऊपर प्रथम सौधर्म तथा ईशान देवलोक है । जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में सौधर्म और उत्तरदिशा में दूसरा देवलोक है । पहले देवलोक के स्वामी का नाम शक्रेन्द्र महाराज है और दूसरे देवलोक के स्वामी ईशानेन्द्र हैं । उक्त दोनों देवलोकों की सीमा के ऊपर तीसरा देवलोक सनत्कुमार और चौथा माहेन्द्र देवलोक है । मेरुपर्वत से दक्षिण दिशासनत्कुमार और उत्तर दिशा में माहेन्द्र है । इन दोनों देवलोकों की सीमा से प्राधा राज ऊपर मेरुपर्वत पर वरावर मध्य में पांचवां ब्रह्मलोक नाम का देवलोक है। इसी देवलोक की चारों दिशाओं और विदिशाओं में ९ - लोकान्तिक जाति के देवता रहते हैं । ये देवता सम्यग्दृष्टि हैं और ये विषयरति से रहित होने के कारण देवपि कहलाते हैं, तथा आपस में छोटे, बड़े न होने के कारण सभी स्वतन्त्र हैं और जो तीर्थकरों की दीक्षा के अवसर पर "बुज्झह युज्भह" कह कर प्रतिबोध करने का अपना ग्राचार पालन करते हैं, लोक के किनारे पर रहने के कारण इन्हें लोकान्तिक कहा जाता है । में " ९३२ .. . ब्रह्मलोक देवलोक के ऊपर समश्रेणी में क्रम से लान्तक, महा-शुक्र श्रौर सहस्रारं देवलोक हैं । ये तीनों देवलोक एक दूसरे के ऊपर हैं। इनके ऊपर सौधर्म और ऐशान की भांति प्रान्त ओर प्राणत ये दो देवलोक हैं । इनके ऊपर समश्रेणि में सनत्कुमार और माहेन्द्र की तरह आरण, अच्युत देवलोक हैं । इन देवलोकों के ऊपर
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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