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________________ ११७ प्रश्नों के उत्तर प्रसिद्ध व्यवहार के अनुसार ही समझना चाहिए- 1. व्यावहारिक काल- विभाग का मुख्य आधार नियत क्रियामात्र है । ऐसी क्रिया सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्कों की गति ही है । स्थानविशेष में सूर्य के प्रथम दर्शन से लेकर स्थानविशेष में सूर्य का जो प्रदर्शन होता है । इस उदय और ग्रस्त के बीच की सूर्य की क्रिया से ही दिन का व्यवहार होता है। इसी तरह सूर्य के ग्रस्त से उदय तक की गति - क्रिया से रात का व्यवहार होता है । दिन का तीसवां भाग मुहूर्त्त माना गया है | पन्द्रह दिन रात का एक पक्ष होता है । इसी प्रकार, मास, ऋतु, 1 यन, वर्ष आदि अनेकविध लौकिक कालविभाग चन्द्र और सूर्य की गतिक्रिया के ग्राधार पर ही किया जाता है । जो क्रिया चालू है, वह वर्तमान काल है । जो होने वाली है वह ग्रनागतकाल और जो हो चुकी हो वह प्रतीतकाल कहलाता है । जो काल गिनती में श्रा संकता है उसे संख्येय और जो गिनती में नहीं आ सकता केवल उपमान (उदाहरण) द्वारा जाना जा सकता है वह असंख्येय काल 'कहा गया है । जिस का अन्त न हो उसे अनन्त कहते हैं । कालचक्र -- : ज्योतिष्क विमानों की गति क्रिया के आधार पर लौकिक काल-विभाग और परिमाण की कल्पना की जाती है । ग्रतः प्रस्तुत में जैन दर्शनमान्य काल-विभाग को भी समझ लेना चाहिए । अवसर्पिणी काल - मुख्य रूप से काल के दो विभाग है- ग्रवसर्पिणी और उत्सर्पिणी । जिस काल में जीवों की शक्ति, श्रवगाहना, ग्रायु क्रमशः घटती चली जाती है, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है और जिस काल में शक्ति, अवगाहना आदि में क्रमशः वृद्धि होती जाती है उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं । ग्रवसर्पिणी काल के छः विभाग होते हैं, जिसे ग्रारा शब्द
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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