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________________ सतरहवां अध्याय ८८८ . अनन्त है। ... जैन अहिंसा के नियम यद्यपि कड़े दिखाई देते हैं, किन्तु उनके पालन में मनुष्य की शक्ति और परिस्थिति का ध्यान रखा जाता है। इसलिए उनकी कठोरता चिंताजनक नहीं है। उनका तो एक ही ध्येय है कि मनुष्य स्वयं अपने को नियंत्रण में रखे, और अपनी अनियंत्रित कामनाओं और वासनाओं पर रोक लगाना सीखे । उस की दशा नशे में मस्त उस मोटर चालक की सी नहीं होनी चाहिए, जो सरपट मोटर दौड़ाते हुए यह भूल जाता है कि जिस सड़क पर मैं मोटर चला रहा हूं, उस पर कुछ अन्य प्राणी भी चल रहे हैं, जो मेरी मोटर से दब कर मर सकते हैं। उसे जहां अपने जीवन की वे अपने सुखचैन की चिन्ता होती है, वहां दूसरों के जीवनों का भी उसे .... ध्यान रहना चाहिए। इसके अलावा, वह यही न सोचता रहे कि मुझे स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पदार्थ खाने को मिलने चाहिएं, चाहे दूसरों को सूखा कौर भी न मिले। मेरे खजाने में बेकार सोने चांदी का . ढेर लगा रहना चाहिए, चाहे दूसरों के तन पर फटा चीथड़ा भी न हो, मेरी साहूकारी सैकड़ों को ग़रोव वनाती है तो मुझे क्या ? मेरे भोगविलास के निमित्त दूसरे के प्राणों पर आती है तो मुझे क्या ? मेरे साम्राज्यवाद की चक्की में देश का देश पिस रहा है तो मुझे ... : क्या ?, इस प्रकार की सभी विचारणाओं पर अंकुश लगाना हो " .. अहिंसा का सर्वतोमुखी लक्ष्य होता है। क्योंकि ये विचार हिंसा को ...जन्म देते हैं। उन्हीं के कारण परस्पर अविश्वास की तीन भावनाः ।। रातदिन मानव को व्याकुल बनाए रखती है। सब उस अवसर की .. प्रतीक्षा में रहते हैं कि कब दूसरे का गला दवोचा जाए। इन सव... विचारों से बचने का एक ही उपाय है, और वह है-अहिंसा । इस के. . ___.. विना शान्ति नहीं मिल सकती। अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर ही मनुष्य ... . बुराई को बुराई समझता है और बुराई को करते हुए भी कम से कम .....
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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