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सतरहवां अध्याय .
.....~~~~rmirmire भ्रातभाव के आधार पर एक कुटुम्ब के रूप में सम्मिलित हों, न कोई किसी का शासक हो और न कोई शास्य हो। सब के सव' : सुख-दुःख कां वरावर ध्यान रखें। सव के साथ संव का मैत्रीभाव.. हो, इस तरह "वसुधैव कुटुम्बकम्" के पवित्र और अहिंसक सिद्धान्त . को चरितार्थ करके यदि सव राष्ट्र अपनी-अपनी नीयतों की सफाई. कर लें और एक प्रेमसूत्र में बंध जावें, तो न कोई युद्ध हो और न युद्ध के भीषण संकटों से जनता को असीम कष्ट भोगना पड़े। ... भाषा और प्रान्तीयता को लेकर जो विवाद होते हैं, साम्प्रदायिकता के व्यामोह ने जनमानस को जो पागल बना रखा है, अन्न और वस्त्र के लिए जो उपद्रव किए जाते हैं, तथा अर्थ-समस्या को आधार बना कर मानव के रक्त से जो होली खेली. जाती है । ये
सब अनर्थ भी सदा के लिए समाप्त हो सकते हैं । मानव जगत आनंद . और शान्ति का महामन्दिर बन सकता है। शर्त एक है और वह यह __ कि सर्वत्र अहिंसां की ही पूजा हो । प्रत्येक मानव अपने मनमन्दिर ।
में भगवती अहिंसा की अर्चना करे, अहिंसा के ही वायुमण्डल में सांस ले, और अहिंसामय ही जीवन व्यतीत करे।
... अहिंसा-धर्म प्रत्येक व्यक्ति को आचरण-निर्माण पर जोर देता हैं, और उसके जीवन से हिंसामूलक व्यवहार को निकाल कर · पारस्परिक व्यवहार में मैत्री, प्रमोद, करुणां और माध्यस्थ्यभाव से "
बरतने की प्रेरणा प्रदान करता है। इतना ही नहीं, वह तो यह भी . कहता है कि राजा भी धार्मिक विचारों का होना चाहिए। क्योंकि राजा के अधार्मिक होने से राजनीति दूषित हो जाती है और राजनीति में अधामिकता के प्रविष्ट हो जाने पर राष्ट्र भर में नैतिक जीवन गिरना आरंभ हो जाता हैं। ऐसी दशा में व्यक्ति यदि .. अनैतिकता से वचना भी चाहे तो भी वच नहीं सकता। अनेक बाहिरी प्रलोभनों और आवश्यकताओं से दब कर वह भी अनर्थ