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________________ न्याय चतुर्दश अध्याय ८०१ .. यह प्रार्थना केशी श्रमण से उस चित्त प्रधान ने की थी, जो - बारह व्रतधारी श्रावक था और धर्म, अधर्म को अच्छी तरह जा. . नता था । चित्त प्रधान की ही इस प्रार्थना को मान कर केशी ' श्रमण ने प्रदेशी की नगरी में आ कर उसे धर्म का उपदेश दिया तथा उस को श्रावक बनाया। यदि मरते जीव को बचाना या कष्ट पाते जीव को कष्ट-मुक्त करना,कराना पाप होता तो चित्त. प्रधान • जो श्रावक थे, इस तरह का पाप कार्य करने, कराने के लिए केशी _स्वामी से प्रार्थना ही क्यों करते ? और केशी स्वामी उस की यह - प्रार्थना स्वीकार. हो क्यों करते ? इस से स्पष्ट है कि मरते. जीव - को बचाना तथा उस के लिए उपदेश देना साधु और श्रावक का - परम धर्म है । . . . . . . . .:.सूयगडांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन में “दाणाण . सेट अभयप्पयाणं यह पाठ आता है। इस में अभयदान की श्रे... प्ठता की बात कही गई है । जो मांग रहा है, उस को अपने और मांगने वाले के अनुग्रह के लिए उस के द्वारा मांगी गई चीज़ देने... ..का नाम दान है। ऐसा दान अनेक प्रकार का होता है ।. उन में .. अभयदान सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि. अभयदान उन मरते हुए प्राणियों - : को प्राण का दान करता है ? जो प्राणी मरना नहीं चाहते हैं, जी- ... वित रहने की इच्छा रखते हैं । मरते हुए प्राणी को एक और क- .. - रोड़ों का धन दिया जाने लगे और दूसरी ओर जीवन दिया जाने । लगे तो वह धन लेकर जीवन ही लेता है। प्रत्येक जोव को जीवन : . - सब से अधिक प्रिय है। इसी से अभयदान सब में श्रेष्ठ है। किन्तु । तेरहपन्थी अभयदान का 'किसी जीव को न मारना' यही अर्थ क- : . रते हैं । उन के मत में मरते हुए जीव को बचाना अभयदान नहीं ... है । तेरहपन्थियों का ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि देने का
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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