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________________ .... चतुर्दश अध्याय . . . ..७८९ निर्जरा दो तरह की होती है-अकाम और सकाम । अकाम (कर्मनाश की इच्छा विना) निर्जरा मिथ्यात्वी. की होती है और कर्म-बन्ध का कारण बनती है । सकाम-कर्मनाश की इच्छा से होने .वाली, निर्जरा सम्यग् दृष्टि की होती है,यह मोक्ष को प्रदान करती है । जीव सम्यग् दृष्टि तभी माना जाता है जब कि -निश्चय में - दर्शन सप्तक अर्थात् अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, xमिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्त्व मोहनीय, इन सात प्रकृतियों का क्षयोपशम करे और व्यवहार में जीव, अजीव आदि नव तत्त्व को समझे तथा देव, गुरु, धर्म का स्वरूप समझ कर शुद्ध देव, गुरु, धर्म की हा करे तब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। जहां तक सम्यक्त्व नहीं होता वहाँ तक जीव सकाम ... निजरा नहीं कर सकता। पुण्य बन्ध तो पहिले से लगाकर तेरहवें गुणस्थान तक सभी जगह होता है । जव आत्मा एकेन्द्रिय अवस्था .. में होता है, वहां परं सम्यक्त्व होता ही नहीं और सम्यक्त्त्व बिना . . सकाम निर्जरा नहीं, तब विना निर्जरा के पुण्य प्रकृति कैसे बढ़ती . हैं ? यदि पुण्य प्रकृति का विकास नहीं माना जाएगा तो एकेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक कैसे पहुंचेंगे ? सम्यक्त्व तो पंचे.... न्द्रिय को ही प्राप्त होती है । वहां तक पुण्य प्रकृति कैसे वांधी...:. जिस कर्म का उदय तात्त्विक रुचि का निमित्त होकर भी प्रोपशमिक और क्षायिक भाव वाली तत्त्वरुचि का वाधक बनता है वह सम्य- क्त्व मोहनीय है । जिस कर्म के उदय से तत्त्वों के यर्थार्थ रूप को समझने . . . का रुचि न हो वह मिथ्यात्व मोहनीय तथा जिस कर्म के उदयकाल में. .. यर्थार्थता की रुचि या अरुचि न हो कर दोलायमान स्थिति रहे उसे मिश्रमोहनीय कहते हैं। .. :: .............
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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