________________
७७६
चतुर्दश अध्याय
बताते हैं । यह एक जबर्दस्त भ्रांति है, भूल है ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर तेरहपन्थी साधु स्थावर जीवों की रक्षा के लिए वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों की प्रतिलेखना करना क्यों नहीं छोड़ते ? - ग्रामानुग्राम विहार करना क्यों नहीं त्यागते ? नदी के पार जाना क्यों नहीं छोड़ते ? पंचेन्द्रिय जीव के मर जाने पर ज्यादा प्रायश्चित्त क्यों लेते हैं ? मांसभक्षी की अपेक्षा अन्नाहारी या शाकाहारी को बड़ा पापी क्यों नहीं मानते ? पंचेन्द्रिय जीव की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव के हिंसक को नरक-गामी क्यों नहीं बतलाते ?
*
तेरहपन्थियों का दूसरा सिद्धान्त है कि जो जीव मारा जा रहा है या कष्ट पा रहा है, वह अपने पूर्व संचित कर्म का भुंग - तान कर रहा है । ऐसे जीव को मरने से बचाना या उस की सहायता करना उस जीव को अपने ऊपर चढ़ा हुआ कम ऋण चुकाने से वंचित रखना है । किन्तु स्थानकवासी परम्परा तेरहपन्थ के इस सिद्धान्त में विश्वास नहीं रखती। क्योंकि जो जीव कसाई आदि द्वारा मारा जा रहा है वह तो महान, घोर कर्मों का बन्ध कर रहा है। पूर्व कृत कर्मों के भुगतान की वहां स्थिति नहीं हो सकती । तेरहपन्थो लोग अपने इस सिद्धान्त की पुष्टि में एक युक्ति दिया करते हैं । साहूकार के दो लड़के हैं। एक अपने सिर पर कर्जा चढ़ा रहा है । दूसरा अपना कर्जा उतार रहा है । अतः पिता जो पुत्र कर्जा चढ़ा रहा है उस को रोकेगा और जो पुत्र कर्जा उतार रहा है, उस की प्रशंसा करेगा । इसी प्रकार साधु पिता के तुल्य है और बकरा जिस को कसाई मार रहा है तथा कसाई जो बकरे को मार रहा है, दोनों साधु रूपी पिता के पुत्र हैं । इन दोनों में कसाई. बकरे को मार कर अपने सिर पर कर्म का ऋण चढ़ा रहा है, - किन्तु बकरा कसाई के हाथ से मर कर अपने पूर्व संचित कर्म रूप
..
܀