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________________ प्रश्नों के उत्तर उत्तर---तेरहपन्थ के मूल सिद्धान्तों को हम संक्षेप में तीन भागों में बांट सकते हैं । सर्वप्रथम तेरहपन्थ का सिद्धान्त है कि एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, चीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पद्रिय, इस प्रकार बस और स्थावर सभी प्राणी एक समान हैं । अतः एक त्रस प्रारणी की रक्षा के लिए अनेकों स्थावर प्राणियों की हिंसा नहीं की जानी चाहिए | जैसे किसी को भोजन दिया गया, पानी पिलाया गया । तब रक्षा तो एक ग्रात्मा की हुई परन्तु इस कार्य में असंख्य और अनन्त स्थावर जीवों का संहार हो जाता है, वह पाप उस जीवरक्षा करने वाले को लगता है । इतना ही नहीं किन्तु जो जीव बचा है, उसके जीवन भर खाने पीने तथा अन्य कार्यों में बस-स्थावर जीवों की जो हिंसा होगी वह हिंसा भी उसी को लगेगी जिस ने उसको मरने से बचाया है अतः मरते हुए किसी जीव को नहीं. बचाना चाहिए | दूसरा सिद्धान्त है कि जो जीव मरता है, या दुःख पा रहा है, वह अपने पूर्व सचित कर्मों का फल भोग रहा है, उसको मरने से बचाना या उस को सहायता दे कर कष्टमुक्त करना, उसको कर्म ऋण चुकाने से वञ्चित करना है, जिसे वह मृत्यु या कष्ट सहने "के रूप में भोग कर चुका रहा था. । ७७२ : - तीसरा सिद्धान्त यह है कि साधु के सिवाय संसार के सब प्राणी कुपात्र हैं, कुपात्र को बचाना, कुपात्र को दान देना, कुपात्र की सेवा सुश्रूषा करना सब पाप है । इन तीन सिद्धान्तों के ग्राधार पर तेरहपन्थी लोग साधु के. अतिरिक्त अन्य व्यक्ति की दया करने एवं उसे दान देने से एकांत पाप कहते हैं और जिन्होंने दयादान का श्रासेवन किया है, उन्हें दोपी या पापी कहते हैं । जैसे भगवान महावीर ने गोशालक को
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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