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________________ प्रश्नों के उत्तर को संघ से बहिष्कृत कर देने की सारी बात सुनाई । उस समय सेवक जाति का एक कवि वहां खड़ा था । उसने तेरह साधु योर तेरह ध्रुवकों को संख्या को ध्यान में रख कर एक दोहा बनाया श्रीर ये तेरह ही साधु हैं और तेरह हो श्रावक हैं, इसलिए इन का नाम तेरह - पन्थी होना चाहिए। वह दोहा यह है ぐの आप आप रो गिलो करे, ग्राप श्राप रो मन्त । सुणज्यो शहर रा लोगा, ऐ तेरहपन्थी तन्त ॥ समय की बात थी कि कवि का यह दोहा और नामकरण भीषण जी को बहुत पसन्द याया । बस उस दिन से श्री भीषण जी और उनके अनुयायी तेरह-पन्थी कहलाने लगे । ग्रागे चल कर तेरह - पन्थ इस शब्द को परिवर्तित कर दिया गया। इसके स्थान में 'तेरा-पंथ' इस शब्द का प्रयोग होने लगा। इस का अर्थ करते हैं - हे प्रभु ! यह तेरा ही पन्थ है, मेरा इस में कुछ नहीं है । मैं तो केवल तेरे बतलाए हुए पन्थ का पत्थी हूं, राही हूं । इस केतिरिक्त, तेरह - पन्थ के साथ एक और नवीन कल्पना कर लो गई है। वह कल्पना यह है कि पांच महाव्रत, पांच समिति, तोन गुप्ति इन जैन शास्त्रों के तेरह नियमों का पूर्ण रूप से जो पालन करेगा वह तेरह - पन्थी साधु होगा । और उक्त साधु को अपना गुरु मानने वाला गृहस्थ तेरह-पन्थी श्रावक होगा । प्रश्न -- तेरहपन्थ में कितने प्राचार्य हो चुके हैं ? उत्तर -- तेरहपन्थ के सर्वप्रथम प्राचार्य भीषण स्वामी थे । इन का विक्रम सम्वत् १८६० भाद्रपद शुक्ला १३ के दिन स्वर्गवास हुआ था । इनके पश्चात् क्रमशः श्री भारमल जी, श्री रायचन्द जी, श्री जीतमल जी, श्री मेघराज जी, श्री माणिक लाल जी, ; +
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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