SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'चतुर्दश अध्याय ४३. भी जाने पर कभी-कभी नारी भी तीर्थंकर का स्थान ले लेती है । नारी पुरुष की भांति निरुपम अतिशय को धारण करके त्रिलोक पूज्य चन जाती है और साधु, साध्वी, श्रावक और क्षाविका रूप चतुविव तीर्थ (संघ) की संस्थापना करके तीर्थंकर पद को उपलब्ध कर लेती है । ११ अंगों की विद्यमानता तीर्थंकर भगवान के उपदेशानुसार गरगघरदेव जिन शास्त्रों की स्वयं रचना करते हैं, वे शास्त्र अंगसूत्र कहलाते हैं । जिस प्रकार ब्राह्मण संस्कृति का आधार चार वेद और वौद्ध संस्कृति का आधार त्रिपिटक और ईसाइयों का ग्राधार वाइवल ( Bible) है उसी प्रकार जैन - संस्कृति का ग्राधार अंग-सूत्र हैं । जिस प्रकार पुरुष के शरीर में दो पैर, दो जंघाएं, दो उरु, दो पसवाड़े ( गात्रार्द्ध), दो भुजाएं, एक गरदन ग्रौर एक सर ये १२ अंग होते हैं । उसी प्रकार श्रुतशास्त्र रूपी पुरुष के १२ अंग हैं, जो अंग-सूत्र के नाम से कहे जाते हैं । अंग सूत्रों की संख्या १२ है, किन्तु इन में बारहवां अंग दृष्टिवाद आजकल उपलब्ध नहीं है । अतः श्राज अंग-सूत्र ११ ही माने जाते हैं । इन अंग-सूत्रों का नामनिर्देश पीछे पृष्ठ ७१४ की टिप्पणी में कर दिया गया है । इतिहास कहता है कि भगवान महावीर के प्रवचन का स्वाध्याय प्रथम मौखिक होता था । आचार्य शिष्य को और शिष्य मांगे. अपने शिष्य को स्मरण करा दिया करते थे । इस प्रकार गुरु परम्परा से प्रांगमों का पठन-पाठन चलता था। भगवान महावीर के लगभंग १५० वर्षों के अनन्तर देश में दुर्भिक्ष पड़ा । दुर्भिक्ष के होते ग्रन्न का प्रभाव स्वाभाविक था । ग्रन्नाभाव से बुद्धिशैथिल्य होने पर कण्ठ
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy