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________________ चतुर्दश अध्याय . ७४१ ..वस्त्र पात्र आदि को परिग्रह का रूप देने की दिगम्बर मान्य- .. ता युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होती। क्योंकि यदि उपकरण-मात्र . को परिग्रह स्वीकार कर लिया जाए तो शरीर को क्या कहा ... जाएगा? "शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम्' की उक्ति शरीर को सब .. से बड़ा साधन प्रमाणित कर रही है। ऐसी दशा में दिगम्बर मान्यता के अनुसार शरीर को भी परिग्रह ही मानना पड़ेगा। फिर : - "शरीरधारी मुनि मुनित्व को प्राप्त नहीं कर सकता" यह भी स्वीकारः .. करना होगा । और विना शरीर के धर्म-साधना नहीं हो सकती, . ऐसी दशा में बात कैसे बनेगी ? व्यक्ति कैसे संयम-साधना कर ... सकेगा? अतः सर्वोत्तम मार्ग यही है कि किसी भी उपकरण को परिग्रह न मानकर मूर्छाभाव को ही परिग्रह का रूप देना चाहिए। इसी मान्यता के आधार पर सव समस्याएं समाहित हो सकती हैं, अन्यथा नहीं। ... आजकल के दिगम्बर साधु मोर पंखों की. वनी एक पीछी. रखते हैं, इस के द्वारा जीव-जन्तु को दूर : हटाते हैं, तथा मलमूत्र . ग्रादि की शुद्धि के लिए एक कमण्डलु भी रखते हैं, उस में प्रासुक .. पानी रखा जाता है । पीछी और कमण्डलु रखकर भी निष्परिग्रही होने का दावा कहां तक ठीक है ? यह पाठक स्वयं सोच सकते हैं ? . : जब वस्त्र का एक धागा भी परिग्रह की परिभाषा से . बाहिर नहीं . ...है तब पीछी आदि पदार्थ परिग्रह से कैसे बाहिर रह सकते हैं ?, . . .... तीर्थंकर मल्लिनाथ का स्त्रीत्वः : ....... . दिगम्बर परम्परा का विश्वास है कि स्त्री साध्वी नहीं हो ‘सकती। वैदिक परम्परा की "न स्त्री-शूद्रौ वेदमधीयताम्" इस उक्ति की भाँति यह परम्परा भी स्त्री को आध्यात्मिक उन्नति का । : अवसर नहीं देती। इस परम्परा का यह कहना है कि स्त्री,
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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