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________________ ७३६ प्रश्नों के उत्तर उस के बाद ही संयमी या साधु का पद प्राप्त करता है और ऐसा दिगम्बर साधु ही मुक्ति को प्राप्त कर सकता है दिगम्बर बने. बिना मुक्ति की उपलब्धि नहीं हो सकती । संसार - परिभ्रमरण का कारण ममत्व हैं, ममत्व से ही संसार के सब प्रपंचों का विकास होता है । ममत्वहीन जीवन सर्वथा निर्लेप और विरक्त रहता है। वास्तव में सभी प्रकार की प्राशाओं की जननी ममता ही है । प्राचार्य शंकर से एक बार पूछा गया था कि संसार में अमृत नाम का कौन सा पदार्थ है, जिसको पाकर मनुष्य सुखसरोवर में निमग्न हो जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्राचार्य ने एक ही बात कही वह थी - निराशाX | आचार्य बोले- आशाओं की समाप्ति या अभाव ही वस्तुतः अमृत है। जहां आशा की विषवेल है, वहीं उस के विषमय फल लगते हैं । आशा का पुजारी मानव ही संसार में दुःख और संकट की चक्की में पिसता रहता है। आशाओं की जननी ममता है। अतः ममता का निरोध ही संयम का सार है । *** ममता को परिग्रह भी कहा जाता है । मुक्ति के साधक को इसका त्याग करना आवश्यक होता है । स्थानकवासी परम्परा का विश्वास है कि यदि हृदय ममता से खाली है, किसी पदार्थ की आसक्ति नहीं रख रहा है, तब वह साधना की ओर बढ़ता है; आत्म शुद्धि उस के निकट ग्राती चली जाती है । इस के विपरीत यदि साधक का मन ममता से ओत-प्रोत हो रहा है, उसे वस्त्रों से, या अन्य उपकरणों से ममत्व भाव है, तब वह मुक्ति के पथ से पीछे जा रहा है किन्तु दिगम्बर परम्परा कहती है कि जब तक xकवामृतं स्यात्, सुखदा निराशा (चर्पट- मंजरी ) .
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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