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________________ nimmmmini ... . त्रयोदश अध्याय . . . ६३५ प्राप्त हो जाएगी। श्रीः कौशाम्बी जी अपनी प्रसिद्ध पुस्तकं भारतीय संस्कृति और अहिंसा" में लिखते हैं............... "परीक्षित के बाद जनमेजय हुए और उन्होंने कुरु देश में महा यज्ञ करके वैदिक-धर्म का झण्डा लहराया । उसी समय काशी देश में पार्श्वनाथ एक नवीन संस्कृति की आधारशिला रख रहे थे।" .. ..... ... ..... .. "श्री पार्श्वनाथ का धर्म सर्वथा व्यवहार्य था। हिंसा, असत्य, स्तेय और परिग्रह का त्याग करना, यह चतुर्याम संवरवाद उन का धर्म था। उस का उन्होंने भारत में प्रचुर प्रचार किया। इतने प्राचीन काल में अहिंसा को इतना सुव्यवस्थित रूप देने का यह प्रथम ऐतिहासिक उदाहरण है।": ::............... ... : "श्री पार्श्वमुनि ने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह, इन तीन नियमों के साथ अहिंसा का मेल : बिठाया था। पहले शारण्य में रहने वाले ऋषि मुनियों के आचरण में जो अहिंसा थी, उसे व्यवहार में स्थान न था। अस्तु, उक्त तीन नियमों के सहयोग से अहिंसा सामाजिक वनी, व्यावहारिक वनी।".:.:.:: .. ; : 7 "श्री पार्श्वमुनि ने अपने नये "धर्म के प्रसार के लिए संघ . . बनाया । बौद्ध साहित्य पर से ऐसा मालूम होता है कि बुद्ध के . काल में जो संघ अस्तित्व में थे, उन में जैन साधु तथा साध्वियों का संघ सवं से वड़ा था ।": : ..... .. .. कौशाम्बी जी के इस लेखांश से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ जी ने आध्यात्मिक जगत में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। और उन्होंने अहिंसा को व्यवस्थित रूप देने का सार्व-भीम श्रेय प्राप्त कर लिया था। ... भगवान पार्श्वनाथ का जन्म-स्थान काशी-देश, बनारस नगरी..
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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