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त्रयोदश अध्याय
६११ यही ऋपभदेव इस युग में जैन धर्म के आद्यप्रवर्तक कहलाए। इन के समय में ही ग्राम, नगर ग्रादि की व्यवस्था हुई। गांव कैसे.
वसाने ? नगरों का निर्माण कैसे करना ? गर्मी और सर्दी से. वचने .. के लिए घर कैसे बनाने ? आदि सभी. जीवनोपयोगी कार्य जनता
को इन्होंने सिखलाए थे । इन्होंने लौकिक शास्त्र, और व्यवहार की शिक्षा दी। और इन्होंने ही अहिंसा धर्म की स्थापना की। इसलिए इन को आदि ब्रह्मा भी कहा जाता है।
- भगवान ऋषभदेव ने जनता को सभी आवश्यक वातों का बोध कराया । इन्होंने प्रजा को कृषि (खेती करने की विद्या), असि (युद्ध-कला), मसि (लिखने आदि की विद्या), शिल्प, : वाणिज्य
और विद्या (अध्ययन तथा अध्यापन) इन ६ कर्मों द्वारा आजीविका करना सिखलाया । इसलिए इन्हें प्रजापति भी कहा जाता है। इन्होंने सामाजिक व्यवस्था को चलाने के लिए मानवजाति को तीन भागों में विभक्त किया-क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र । जो लोग अधिक शूरवीर थे, शस्त्र चलाने में कुशल थे, संकट काल में प्रजा की रक्षा कर सकते थे, अपराधियों को दण्ड देकर राष्ट्र की व्यवस्था कर सकते थे,उन्हें क्षत्रिय पद दिया गया । जो व्यापार में, व्यवसाय में,कृषि-वेती बाड़ो करने,कराने में और पशु-पालन आदि में निपुण थे, वे वैश्य कहलाए । तथा. जिन्होंने सेवावृत्ति स्वीकार की, उन्हें शूद्र की संज्ञा दी गई । ब्राह्मण वर्ग या वर्ण की स्थापना भगवान के सुपुत्र महाराजा भरत ने अपने चक्रवर्ती काल में की थी।
जो अपना जीवन ज्ञानाभ्यास में लगाते थे, प्रजा को शिक्षा दे . सकते थे । समय-समय पर उसे- सन्मार्ग पर चलने का उपदेश देते
थे, उस वर्ग को ब्राह्मण पद अर्पित किया गया था। भगवान ऋषभदेव ने वर्गों की स्थापना में कर्म की महत्ता को स्थान दिया