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________________ द्वादश अध्याय ५८३ वैविध्य बोलते समय मुख को प्रावृत करने एवं खुला रखने की प्रवृत्ति पर आधारित है । यह बात श्वेताम्बर परम्परा की सभी संप्रदायों को भी मान्य है कि खुले मुह से बोली जाने वाली भाषा सावध है ? प्रश्न-बोलते समय मुखवस्त्रिका लगाना तो समझ में आ गया, परन्तु पूरे दिन-रात उसे मुंह पर बांधे रखने का क्या उद्देश्य, यह समझ में नहीं आता ? उत्तर-इस बात को हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि अहिंसा विवेक में है। ज़रा-सा प्रमाद या अविवेक हिंसा एवं पापबन्ध का कारण बन जाता है । अतः साधु को सदा सावधान एवं जागृत रहने का आदेश है । वह चलते समय रजोहरण को सदा हरु कदम पर अपने साथ रखता है । जव कि हर क़दम पर वह उसका उपयोग भी नहीं करता है, जहां तक कि अनेकों बार अपने गन्तव्य स्थान तक पहुंचने तक उसे उसका उपयोग करने का अवसर ही नहीं मिलता । फिर भी वह उसे सदा बगल में दवाये या कन्धे पर . डाले रहता है । क्यों ? इस क्यों का उत्तर एक ही है कि उसे पता नहीं रहता कि किस स्थान पर उसे उसको आवश्यकता पड़ जाए । कभी-पूरे रास्ते में हलते-चलते जीव दिखाई नहीं देते हैं औरः । कभी-कभी कई स्थान ऐसे आ जाते हैं कि रजोहरण से परिमार्जन किए बिना आगे बढ़ना कठिन हो जाता है। अतः उसकी किस समय आवश्यकता पड़ जाए? इसका मालूम न होने से उसे सदा साथ रखने का विधान है। वैसे ही मुखवस्त्रिका भी सदा लगानी चाहिए, पंता नहीं किस समय हमें बोलना पड़ जाए । इसके सिवाय किसी भी समय उवासी, खांसी, ढकार आदि पा सकते हैं और
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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