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________________ ५१७ एकादश अध्याय प्रेरणा से लोग हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन एवं परिग्रह संग्रह आदि पाप'कार्यों को ओर कदम बढ़ावे ऐसा उपदेश पाप कर्मोपदेश कहलाता है। जैसे देवी-देवताओं के सामने पशु बलि चढ़ाने के कार्य में धर्म बताकर लोगों को हिंसा की प्रेरणा देना या धन कमाने के लोभ से कुलटा एवं 'अवोध स्त्रियों को व्यभिचार की ओर प्रवृत्त करना या इसी तरह लोगों को अन्य पापकार्यों की ओर प्रवृत्त होन की प्रेरणा देना पापकर्मोपदेश है। इस से अनेक जीवों की हिंसा होती है । समाज एवं राष्ट्र में व्यभिचार एवं भ्रष्टाचार बढ़ता है। इसलिए श्रावक को ऐसा उपदेश नहीं देना चाहिए। किसी भी प्राणी को हिंसा आदि पाप जन्य कार्यों के लिए प्रेरित नहीं करना चाहिए । . इस व्रत का इतना हा उद्देश्य है कि श्रावक ने अणुव्रत स्वीकार करते समय जितना प्रागार रखा है तथा छठे और सातवें व्रत में दिशानों एवं उपभोग-परिभोग के साधनों की जो मर्यादा रखा है, उन का भी अनावश्यक उपयोग नहीं करना चाहिए । इस तरह यह व्रत अणुव्रत में गुण की अभिवृद्धि करता है । तोनो गुणत्रत क्रमशः जीवन की संयमित बनाने में सहायक हैं । उक्त व्रत की निरतिचार पालन करने के लिए निम्नोक्त पांच बातों से सदा बचे रहना चाहिए - : , १- कन्दर्प, २ कौत्कुच्य, ३- मौखयं ४ संयुक्ताधिकरण श्रौर ५उपभोग - परिभोग रति । जीवन में काम-वासना बढाने वाली बातें करना या विषय-वासना वर्धक साहित्य एवं पत्र लिखना-पढ़ना कन्दर्प दोष है । इस से जीवन में विषय-भोगों की तृष्णा बढती है, जिससे जीवन संयमित एवं नियमित नहीं रह पाता । कौत्कुच्यशरीर एवं अंगोंपांय को विकृत बना कर लोगों को हंसाना तथा शरीय से कुचेष्टाएं करना। मौखर्य - निष्प्रयोजन अधिक बोलना एवं व्यर्थ ही हंसी-ठठा करना । संयुक्ताधिकरण - कूटने- पीसने, कचरा ^^^^^^
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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