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________________ ५०१ .. एकादश अध्याय ...... प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक सभी तरह के मैथुन) का त्याग करता है, '. परिग्रह की मर्यादा करता है। उसका यह त्याग सांधारण रूप से.. चलता है । अर्थात् उसने जो आगार (छूट) रखा है, उसकी कोई सीमा नहीं है, पूरे लोक का प्राश्रव द्वार उसके लिए खुला है। दिक्-परिमाण व्रत उक्त आश्रवं द्वार को कुछ हद तक बन्द करता है। क्योंकि अभी तक उसने जो छूट रखी है उसका सेवन वह सारे संसार में नहीं करता और न कर सकना ही संभव है। मनुष्य का जीवन इतना छोटा है कि वह लोक में सर्वत्र आ-जा नहीं सकता, थोड़े से क्षेत्र में ही उस की गति-प्रगति हो सकती है । अत: इस व्रत में श्रावक अपने आवागमन के क्षेत्र की मर्यादा बांध लेता है। अपने जीवन-निर्वाह के लिए जितने क्षेत्र में विचरण करने की आवश्यकता होती है, छहों दिशाओं में वह उतना क्षेत्र खुला रख लेता है, शेष क्षेत्र में गतिः करने का त्याग कर देता है । इस से यह होता है कि जो उस ने अभी तक सूक्ष्म हिंसा, सूक्ष्म झूठ, सूक्ष्म चोरी, स्वदार सन्तोषवृत्ति और मर्यादित परिग्रह का त्याग नहीं किया था, अब वह अपनो उक्त प्रवृत्ति को . . मर्यादित क्षेत्र से बाहर नहीं कर सकता। जितने क्षेत्र को मर्यादा रखी. . है, उस के बाहर के क्षेत्र में वह मन, वचन और शरीर से हिंसा आदि पांचों दोषों को सेवन करने का सर्वथा त्याग कर देता है। ....... .. गमनागमन का क्षेत्र मर्यादित नहीं होता है, तो उस से पापाचार में अभिवृद्धि होती है। देखा गया है कि राजा-महाराजा या राष्ट्र-नेता जब दूसरे को अपने अवोन बनाने के लिए, विजय पाने के लिए निकलते हैं तो उनकी राक्षसी स्वार्थ वृत्ति में लाखों-करोड़ों गरीव .. और निर्दोष लोगों का जीवन समाप्त हो जाता है। लाखों-करोड़ों लोगों का जीवन मुसीबत में पड़ जाता है। खाद्य पदार्थ एवं अन्य जीवनोपयोगी साधन-सामग्री की कमी हो जाने से पदार्थ महंगे हो
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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