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________________ -winnaruwaonmarrr " . . .. '' ,४७७ । एकादश अध्याय.. - साधना में संलग्न रह सके। .............. ... ... ... .. .. .. .. अस्तेय श्राव्रत : ..... .... इस व्रत को स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत भी कहते हैं । स्तेय . का अर्थ चोरी करना होता है और अदत्तादान को अर्थ भी दूसरे के अधिकार में रहे हुए पदार्थ को उसकी आज्ञा के बिना ग्रहण करना होता है। अतः सचित्त-गाय,भैंस आदि सजीव प्राणियों को तथा प्रचित्त-स्वर्ण,चांदी आदि निर्जीव पदार्थों को-वे जिसके अधिकार में है, उसे विना पूछे उन पर अधिकार करना चोरी है। यह कर्म स्व और पर दोनों के लिए अहितकर है। क्योंकि जिसकी वस्तु उसकी . अनुपस्थिति में उस से विना पूछे उठा ली जाती है या उसकी आंखों में धूल झोंककर, उसे धोखा देकर उसकी उपस्थिति में ही वस्तु को गायब कर दिया जाता है या शक्ति एवं बल प्रयोग द्वारा उस से छीन ली जाती है, तो उक्त व्यक्ति को इससे अत्यधिक दुःख होता है. और उसे वापस पाने के लिए वह निरन्तर चिन्तित रहता है, छीनने या चुराने वाले व्यक्ति का अहित चाहता है एवं रात-दिन आर्त,रौद्र ध्यान में डूबा रहता है। और जो व्यक्ति चोरी करता है वह भी इस क्रूर कर्म को करने के लिए रात-दिन अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्पों में संलग्न रहता है । चोरी करने के बाद उसे छुपाने के अनेक प्रयत्न करता है और सदा चिन्ता एवं आर्त्त-रौद्र ध्यान में लगा रहता है। इस तरह दूसरे के धन-वैभव पर हाथ मारना न्याय एवं धर्म सभो दृष्टियों से बुरा माना गया है । इस तरीके से धन प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी शान्ति को सांस नहीं ले सकता, पाराम का जीवन नहीं बिता सकता। अतः चोरी करना हर हालत में दोष है, अपराध है, महापाप है। अस्तु, श्रावक जीवन पर्यन्त के लिए दो करण तीन योग .. .:.
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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