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________________ ( 57 ) मिति मुनिः “मनेरुदेतौ चास्य वा" (उणा० 6 12) इति इ प्रत्यये उपान्त्यस्योत्वं शोभनानि वृत्तान्यस्य मुव्रत मुनिश्वासौ सुव्रतश्च मुनिसुव्रत. तथा गर्भस्थ जननी मुनिवत् सुव्रता जातेति मुनिसुव्रत तीन काल में जो जगत् को मानता है उसी का नाम मुनि है तथा सुन्दर है व्रत जिस के, सो दोनों पदों के एकत्र करने से मुनिसुव्रत शब्द बन गया तथा जव श्रीभगवान् गर्भावास में थे तब भगवन्त की माता मुनि के समान सुन्दर व्रत वाली हो गई थी. इसी कारण से श्रीभगवान् का नाम सुव्रत रक्खा गया / परीपहोपसर्गादिनामनात् नमस्तु वा ( उणा-६ 13) इति विकल्पनोपोन्त्येकारभाव पक्ष नमिः यद्वा गर्भस्य भगवति परचक्रपै. अपि प्रणतिः कृतेति नमि / परीषहादि वैरियों को नमन करने से नमि तथा जव श्रीभगवान् गर्भावास में थे तव वैरी राजे भी आकर श्रीभगवान् के पिता को नमस्कार करने लग गये इसी कारण से नमिनाथ नाम संस्कार किया गया / धर्मचक्रस्य नैमिवन्नेमि. नेमीती-नन्तोऽपि दृश्यते यथा वन्दे सुव्रतनेमिनी इति / धर्म चक्र की धारा के समान वह नेमि है तथा जव श्री भगवान् गर्भावास में थे तव माता ने अरिएरत्नमय नेमि (चक्र धारा) आकाश में उत्पन्न हुई देखी इसी लिये अरिष्टनेमिनाथ नाम संस्कार किया गया तथा च प्राकृतपाठः- गम्भगए तस्स मायाए रिठरयणामउ महति महालउनमि उप्पयमाणो सुमिणे दिठोत्ति तेण से रिह नैमित्ति नाम कयंति" अर्थ प्राग् लिखा गया है स्पृशति ज्ञानेन सर्वभावानिति पार्श्व. तथा गर्भस्थे जनन्या निशि शयनीयस्थयाऽन्धकारे सो दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयम् इति मत्वा पश्यतीतिनिरुतात् पार्श्व. पार्थोऽस्य वैयावृत्यकरो यक्षस्तस्य नाथः पार्श्वनाथ भीमाभीमसेनः इति न्यायाद् वा पार्श्वः सर्वभावों को जो ज्ञान से जानता है उसे ही पार्श्व कहते हैं, सो यह लक्षण तो सर्व तीर्थकरों में संघटित होता है, परंच जव श्रीभगवान् गर्भावास में थे तब श्रीभगवान् की माता ने अपनी शय्या पर बैठ अंधकार म जाते हुए सूर्य को देख लिया; तव माता ने विचार किया यह सव गर्भ का प्रभाव है तथा पार्श्व नाम वाला यक्ष श्रीभगवान् की अत्यन्त भक्ति करता था इसी कारण पार्श्वनाथ नाम हुआ / विशेषण ईरयति प्रेरयति कर्माणीति वारः विशेषतया जो कर्मों को प्रेरते हैं इसी कारण उन्हें वीर कहा जाता है तथा महा उपसर्गों के सहन करने से श्रीभगवान् का नाम श्रीश्रमण भगवान् महावीर प्रसिद्ध हुआ / इस प्रकार वर्तमान अवसर्पिणी काल में मोक्ष को प्राप्त हुए 2 चतुर्विंशति तीर्थंकरों के व्युत्पत्ति युक्त नामोकीर्तन कथन किये गए हैं। अव जिन 2 तीर्थंकरों के अपर नाम भी है उन का विवरण किया जाता है / जैसे कि- ऋषभो वृषभ. वृषभ का लक्षण होने से ऋषभ देव को वृषभदेव ( नाथ) कहते हैं / श्रेयान् श्रेयासः सकल भुवन में प्रशस्यतम होने से श्रेयांस को * श्रेयान् " कहते हैं। स्यादनन्त जिदनन्तः अनन्त कर्मा के अंशों को जीतने से अथवा अनन्त ज्ञानादि के होने से
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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