________________ हो जाता है / क्योंकि-जैसे कोई व्यक्ति जव दीपक के द्वारा प्रकाश करने की इच्छा रखता है तो उसको उस प्रकाश के सहकारी कतिपय अन्य पदार्थों के एकत्र करने में प्रयत्न करना पड़ता है। इतना किए जाने पर भी वह दीपक का प्रकाश सादि सान्त पद वाला होता है, वा ह्रस्व वा दीर्घ तथा अल्प वा महत्प्रकाश का करने वाला होता है; परन्तु सूर्य को प्रकाश के लिये किसी भी सहकरी पदार्थों की आवश्यकता नहीं पड़ती है और ना ही वह प्रकाश द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सादिसान्त पद को धारण करने वाला होता है। ना ही वह प्रकाश अल्प वा महत्. ह्रस्व वा दीर्घ होता है। किन्तु एक रसमय होता है, ठीक उसी प्रकार जो रागादि द्वारा जीवों की रक्षा की जाती है, वह तो दीपक के प्रकाश के तुल्य होती है। परन्तु जो वीतराग भाव से जीवों की रक्षा होती है, वह सूर्य के प्रकाश के तुल्य एक रसमय होती है। क्योंकि-श्रीवीतराग प्रभुतोएकेंद्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों के लिये सामान्यतया रक्षा का उपदेश करते हैं, परन्तु रागी आत्मा अपने स्वार्थ को मुख्य लेकर रक्षा करने में कटिवद्ध होते हैं / अतएव श्रीभगवान् का रक्षा करना स्वाभाविक गुण होता है, इस लिये वे कर्मों का बंधन नहीं करते. अपितु उक्त क्रियाओं से नामादि कर्मों की प्रकृतियां क्षय हो जाती हैं / यदि ऐसा कहा जाय कि जब उनका रक्षा करना स्वाभाविक गुण है, तो फिर घे अव जगत् वासी दुःखित जीवों की अपनी शक्ति द्वारा रक्षा क्यों नहीं करते ? इस शंका का समाधान यह है कि वे तो शास्त्रों द्वारा प्राणीमात्र की सदैव रक्षा करते रहते हैं। यावन्मात्र अहिंसा का सिद्धान्त है वह सव प्राणी मात्र की रक्षा कर रहा है, और उक्त सिद्धान्त के प्रकाशक श्री अर्हन् देव ही हैं / अतएव वे सदैव उपकार करते रहते हैं, तथा जो श्रीभगवान् ने कर्मों के फल प्रतिपादन किये है, यही उनका परमोपकार है। क्योंकि उन कर्मों के फलों को सुनकर अनेक आत्माएं अपना कल्याण कर सकती हैं, और कर रही हैं यह सिद्धान्त विद्वानों द्वारा माना गया है कि-जैन धर्म के संदेश से ही जगत् में शान्ति की स्थापना हो सकती है। यद्यपि अन्य मतावलम्बियों ने भी दया का कुछ प्रचार किया है, परन्तु जिस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से जैन धर्म ने दयाका प्रचार किया है उस प्रकार वादियों ने दया के स्वरूप को कभी सुना भी नहीं तथा जैन धर्म ने एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक सम भाव से दया का उपदेश किया है। वादियों ने उस स्वरूप को समझा भी नहीं। सो धर्म-प्रचार द्वारा श्रीभगवान् ने अनन्त प्राणियों पर उपकार किया है और इसी उपकार से भव्य प्राणी अपना कल्याण किये जा रहे हैं सो श्रीभगवान् अपने पवित्र उपदेश द्वारा सदैव उपकार करते रहते हैं। श्रीभगवान् ऊपर 34 अतिशय 35 वचनातिशय और 18 अष्टादश दोषों से रहित होते हुए मुख्य 12 द्वादश गुणों के