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________________ दिखाया / सो भाव चोरी उसका नाम है जो निज गुण से वाहिर के पुद्गलादि पदार्थ हैं उनके परित्याग होने के परिणाम होने हैं। इसके अतिरित शास्त्रकार ने द्रव्य चोरी की रक्षा के वास्ते पांच अतिचार प्रतिपादन किये हैं जो गृहस्थधर्म के पालने वाले व्यक्ति को कदापि आसेवन न करने चाहिएं / जैसेकि तयाणन्तरं चणं थूलगस्स अदिण्णादाण वेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्या तंजहा-तेणाहडे तक्करप्पनोगे विरुद्धरजाइक्कमे कूडतुलकूडमाणे तप्पडिरूवगववहारे // 3 // भावार्थ--द्वितीय अणुव्रत के पश्चात् तृतीय अणुव्रत का वर्णन किया जाता है / जो कि-स्थूल अदत्तादानत्यागरूप व्रत है। उसके भी पांच अतिचार वर्णन किये गए है जो कि-जानने योग्य तो हैं परन्तु प्रासेवन करने योग्य नहीं हैं। जैसेकि 1 स्तेनाहृत-लालच के वश होते हुए चोरी का बहुमूल्य पदार्थ अल्प मूल्य में लेना ! परन्तु जब वहुमूल्य वाले पदार्थ को अल्प मूल्य में लिया जायगा तो अवश्यमेच संदेह होसकता है कि-यह पदार्थ चोरी का है जिससे चोरों की जो दशा होती है जिसे लोग भली भांति जानते हैं, वही उसकी होती है। क्योंकि-चोरी का माल लेने वाला भी एक प्रकार का चोर है। 2 तस्करप्रयोगातिचार-चोरों को प्रेरित करना कि-तुम आजकल व्यर्थ कालक्षेप क्यों कर रहे हो? चोरी करो, तुम्हारी चोरी का माल हम विक्रय कर देंगे / इस प्रकार करने से तृतीय अणुव्रत में दोष लगता है। 3 विरुद्धराज्यातिक्रम-राजा की आज्ञा का पालन न करना / जैसे , कि-राजा की आज्ञा हुई कि-अमुक राजा के देश से व्यापार मत करो, परन्तु उसकी आज्ञा पर न रह कर उस देश से व्यापार करते रहना / सो जो राजा न्याय से राज्य शासन कर रहा है उसकी आज्ञा का उल्लंघन कर देना यह भी उक्त व्रत में दोष का कारण है। 4 कूटतुलाकूटमानातिचार-तोलने और मापने में न्यूनाधिक करना। क्योंकि इस प्रकार करने से व्यापार का नाश होजाता है / यदि यह विचार किया जाए कि इस प्रकार से लक्ष्मी की वृद्धि होजाएगी तो यह विचार अतिनिकृष्ट है: क्योंकि लक्ष्मी की स्थिति न्याय से होती है नतु अन्याय से / अतएव धर्म और व्यापार की शुद्धि रखने के लिये व्यापारी वर्ग को उक्त दोप पर अवश्य विचार करना चाहिए। ५-तत्पतिरूपकव्यवहार-शुद्ध वस्तु में उसके सदृश वा उसके असदृश वस्तु मिला कर वेचना / जैसेकि-दुग्ध में जल, केशर में कसुंबा, घृत
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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